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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 52
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यस्य॑ कु॒र्मो गृ॒हे ह॒विस्तम॑ग्ने वर्द्धया॒ त्वम्। तस्मै॑ दे॒वाऽअधि॑ब्रुवन्न॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑। कु॒र्मः। गृ॒हे। ह॒विः। तम्। अ॒ग्ने॒। व॒र्द्ध॒य॒। त्वम्। तस्मै॑। दे॒वाः। अधि॑। ब्रु॒व॒न्। अ॒यम्। च॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑ ॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यसय कुर्मा गृहे हविस्तमग्ने वर्धया त्वम् । तस्मै देवा अधि ब्रवन्नयञ्च ब्रह्मणस्पतिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। कुर्मः। गृहे। हविः। तम्। अग्ने। वर्द्धय। त्वम्। तस्मै। देवाः। अधि। ब्रुवन्। अयम्। च। ब्रह्मणः। पतिः॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 52
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    पदार्थ -
    १ गत मन्त्र की समाप्ति 'देवानां भागदा असत्' शब्दों पर हुई है। यह 'अप्रतिरथ' लोभादि में नहीं फँसता और देवांश को सदा अलग करनेवाला होता है। ये देव प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे अग्ने हमारी उन्नति के साधक प्रभो ! (यस्य गृहे) = जिसके घर में (हविः कुर्मः) = हम हवि का सेवन करते हैं, अर्थात् यज्ञ करके यज्ञशेष के रूप से भोजनादि करते हैं (तम्) = उस यजमान को (त्वम् वर्द्धय) = आप बढ़ाइए। वह शरीर, मन व बुद्धि तीनों के दृष्टिकोण से उन्नति करनेवाला हो। २. (तस्मै) = उस अतिथियज्ञ करनेवाले के लिए (देवाः) = समय-समय पर आनेवाले सब विद्वान् (अधि ब्रुवन्) = आधिक्येन उपदेश दें। देवता तो इसे उपदेश दें ही, (च) = और (अयं ब्रह्मणस्पति:) = यह ज्ञान का पति परमात्मा हृदयस्थरूपेण इसे सदा प्रेरणा प्राप्त कराए। इस अतिथियज्ञ करनेवाले व्यक्ति को विद्वान् अतिथियों से उत्तम प्रेरणा प्राप्त होती है और इसे प्रभु की प्रेरणा सुनने की शक्ति भी मिलती है।

    भावार्थ - भावार्थ - जिस घर में विद्वान् अतिथि आते रहते हैं, उसे सदा उत्तम उपदेश मिलता है और यह 'शुद्ध हृदय' होकर प्रभु की प्रेरणा को भी सुन पाता है।

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