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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 60
    ऋषिः - विश्वकर्मर्षिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ए॒तं जा॑नाथ पर॒मे व्यो॑म॒न् देवाः॑ सधस्था वि॒द रू॒पम॑स्य। यदा॑गच्छा॑त् प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑रिष्टापू॒र्त्ते कृ॑णवाथा॒विर॑स्मै॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम्। जा॒ना॒थ॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॑ विऽओ॑मन्। देवाः॑। स॒ध॒स्था॒ इति॑ सधऽस्थाः। वि॒द॒। रू॒पम्। अ॒स्य॒। यत्। आ॒गच्छा॒दित्या॒ऽगच्छा॑त्। प॒थिभि॒रिति॒ प॒थिभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्त इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। कृ॒ण॒वा॒थ॒। आ॒विः। अ॒स्मै॒ ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतञ्जानाथ परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद रूपमस्य । यदागच्छात्पथिभिर्देवयानैरिष्टापूर्ते कृणवाथाविरस्मै ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतम्। जानाथ। परमे। व्योमन्निति विऽओमन्। देवाः। सधस्था इति सधऽस्थाः। विद। रूपम्। अस्य। यत्। आगच्छादित्याऽगच्छात्। पथिभिरिति पथिभिः। देवयानैरिति देवऽयानैः। इष्टापूर्त्त इतीष्टाऽपूर्त्ते। कृणवाथ। आविः। अस्मै॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 60
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    पदार्थ -
    १. हे यज्ञशील व्यक्तियो ! (एतम्) = इस प्रभु को (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट हृदयदेश में तथा इस निरवधिक आकाश में सर्वत्र व्याप्त (जानाथ) = जानो । २. हे (सधस्थाः) = यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले (देवाः) = यज्ञादि उत्तम व्यवहारों के करनेवाले विद्वान् पुरुषो! (अस्य) = इस सर्वत्र व्याप्त प्रभु के रूप को विद जानो । यज्ञों से ही प्रभु का उपासन व दर्शन होता है। ३. (यत्) = जब मनुष्य (देवयानैः पथिभिः) = देवयान मार्गों से (आगच्छात्) = चलता है और (इष्टापूर्ते) = इष्ट और आपूर्त को (कृणवाथ) = करता है तब (अस्मै) = [क] देवयान मार्ग पर चलनेवाले [ख] इष्ट और आपूर्त को करनेवाले इस व्यक्ति के लिए (आविः) = वे प्रभु प्रकट होते हैं। प्रभु का दर्शन देवयान मार्ग पर चलनेवाले और इष्ट तथा आपूर्त को करनेवाले व्यक्ति को ही होता है। प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु प्राप्ति के लिए निम्न निर्देश हैं- [क] प्रभु का दर्शन परम व्योमन्, अर्थात् उत्कृष्ट हृदयदेश में होगा, अतः हृदय को पवित्र बनाना अत्यन्त आवश्यक है। [ख] यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले देव ही प्रभु को जान पाते हैं, अर्थात् यज्ञादि पवित्र कर्मों में लगे रहना प्रभु-प्राप्ति का द्वितीय उपाय है। [ग] देवयान मार्गों से चलना, अर्थात् देवताओं के योग्य कर्म ही करना प्रभु-प्राप्ति का तीसरा साधन है और [घ] इष्ट और आपूर्त में जीवन का यापन करनेवाले के लिए प्रभु प्रकट होते हैं। हम यज्ञ करें, दान दें, लोकहित के कार्यों में धन का विनियोग करें।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के लिए हम हृदयाकाश को पवित्र बनाएँ, यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले देव बनें, देवयानमार्ग से चलें और हमारा जीवन इष्टापूर्तमय हो ।

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