यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 2
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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परी॒तो षि॑ञ्चता सु॒तꣳ सोमो॒ यऽउ॑त्त॒मꣳ ह॒विः। द॒ध॒न्वा यो नर्यो॑ऽअ॒प्स्वन्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः॥२॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑। इ॒तः। सि॒ञ्च॒त॒। सु॒तम्। सोमः॑। यः। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। ह॒विः। द॒ध॒न्वान्। यः। नर्य्यः॑। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तः। आ। सु॒षाव॑। सु॒षावेति॑ सु॒ऽसाव॑। सोम॑म्। अद्रि॑भि॒रित्यद्रि॑ऽभिः ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परीतो षिञ्चता सुतँ सोमो यऽउत्तमँ हविः । दधन्वा यो नर्या अप्स्वन्तरा सुषाव सोममद्रिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
परि। इतः। सिञ्चत। सुतम्। सोमः। यः। उत्तममित्युत्ऽतमम्। हविः। दधन्वान्। यः। नर्य्यः। अप्स्वित्यप्ऽसु। अन्तः। आ। सुषाव। सुषावेति सुऽसाव। सोमम्। अद्रिभिरित्यद्रिऽभिः॥२॥
विषय - सोम का रक्षण
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार सोम का शरीर में रक्षण व परिपाक करते हुए ये पति-पत्नी भारद्वाज' = अपने में शक्ति व ज्ञान को भरनेवाले होते हैं। यह भारद्वाज प्रभु की इस प्रेरणा को सुनता है कि (परीतः) = [परि इतः] यह सोम सर्वतः प्राप्त हो। इसका अपव्यय न होकर यह शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों में ही व्याप्त हो जाए। २. (सुतम्) = उत्पन्न हुए हुए इस सोम को (षिञ्चत) = शरीर में ही सिक्त करो। ३. (यः सोमः) - यह सोम (उत्तमं हविः) = सर्वोत्तम ग्रहण करने योग्य पदार्थ है। इसी ने [क] हमारे जीवन को सशक्त व दीर्घ बनाना है, [ख] बुद्धि को सूक्ष्म करना है, [ग] हमें परमात्मा दर्शन के योग्य बनाना है। ४. (दधन्वान्) = यह हमारा धारण करता है। हमारा जीवन इसी के धारण पर निर्भर है ('जीवनं बिन्दुधारणात्')। ५. यह सोम वह है (यः) = जो (नर्यः) = मनुष्यों का हित करनेवाला है। यह उन्हें सब आधि-व्याधियों से सुरक्षित करता है । ६. (सोमम्) = इस सोम को यह 'भारद्वाज' अद्रिभि: प्रभु के पूजन [adoring] के द्वारा (अप्स्वन्तरा) = सदा कर्मों में स्थित हुआ हुआ (सुषाव) = अभिषुत करता है। सोम का शरीर में उत्पादन व रक्षण वही व्यक्ति कर पाता है, जो प्रभु-उपासन करता है और अपने को कर्मों में व्यापृत रखता है। प्रभु-उपासन से दूर होने पर और अकर्मण्य हो जाने पर हम वासनाओं के शिकार होने लगते हैं तब सोम के रक्षण का प्रश्न ही नहीं उठता।
भावार्थ - भावार्थ- हम सोम को शरीर में ही सुरक्षित करें। सोम की रक्षा के लिए प्रभु का पूजन व कर्मों में व्याप्ति आवश्यश्क है। प्रभु - स्मरणपूर्वक कर्मरत पुरुष सोम को वासनाओं से विनष्ट नहीं होने देता।
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