यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 3
ऋषिः - आभूतिर्ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ् सोमो॒ऽअति॑द्रुतः। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑। वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्राङ् सोमो॒ऽअति॑द्रुतः। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥३॥
स्वर सहित पद पाठवा॒योः। पू॒तः। प॒वित्रे॑ण। प्र॒त्यङ्। सोमः॑। अतिद्रु॑त॒ इत्यति॑ऽद्रुतः। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑। वा॒योः। पू॒तः। प॒वित्रेण॑। प्राङ्। सोमः॑। अति॑द्रुत॒ इत्यति॑ऽद्रुतः। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्क्सोमोऽअतिद्रुतः । इन्द्रस्य युज्यः सखा वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्क्सोमोऽअतिद्रुतः इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥
स्वर रहित पद पाठ
वायोः। पूतः। पवित्रेण। प्रत्यङ्। सोमः। अतिद्रुत इत्यतिऽद्रुतः। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा। वायोः। पूतः। पवित्रेण। प्राङ्। सोमः। अतिद्रुत इत्यतिऽद्रुतः। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा॥३॥
विषय - इन्द्रस्य युज्यः सखा-सदा
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित (सोमः) = सोम (वायो:) = वायु के द्वारा (पूतः) = पवित्र होता है, अर्थात् प्राणापान की साधना से इस सोम में वासनाओं से उत्पन्न होनेवाली अपवित्रता नहीं आती। २. (पवित्रेण) = 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' इस वाक्य के अनुसार जीवन को पवित्र करनेवाले ज्ञान से (सोम:) = यह सोम (प्रत्यङ) = [प्रति अञ्चति] वापस शरीर में गतिवाला होकर (अतिद्रुत:) = अतिशयेन गमनवाला होता है, अर्थात् सोम की रक्षा करनेवाले पुरुष के जीवन को यह सोम अतिशयेन गतिवाला बना देता है। सोमरक्षा के अभाव में अशक्त होकर मनुष्य निश्चेष्ट सा बन जाता है। ज्ञान प्राप्ति में लगने पर यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, अतः शरीर में ही इसका व्यापन होता है और शरीर की न्यूनताओं का दूरीकरण होकर यह शरीर यन्त्र नये-का-नया-सा बना रहता है, इसकी गति में कमी नहीं आती । ३. ऐसा होने पर सोम का रक्षक यह पुरुष (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (युज्यः सखा) = सदा साथ रहनेवाला मित्र बनता है। मानव जीवन के उत्कर्ष की यह चरमसीमा है कि 'हम प्रभु के मित्र हों । ४. फिर इस सारी भावना को आवृत्त करते हुए कहते हैं कि (वायो:) = यह प्राणापान से पवित्र होता है। प्राणायाम के द्वारा इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होकर यह शरीर के अन्दर स्थिर रहता है। (पवित्रेण) = ज्ञान के द्वारा (सोम:) = यह सोम (प्राङ्) = [प्राञ्चति ऊर्ध्वं गच्छति-म०] ऊर्ध्वगतिवाला होता है और इस ऊर्ध्वगति के कारण इस सोम का रक्षक (अतिद्रुतः) = अतिशयेन शीघ्रता से कार्यों में व्यापनेवाला होता है। और (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (युज्यः सखा) = सदा साथ रहनेवाला मित्र होता है। ४. उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का मित्र बनकर यह भी ' आभूति' सर्वत्र ऐश्वर्यवाला होता है। इसके अन्नमयादि पाँचों कोश 'तेज, वीर्य, बल व ओज, ज्ञान [मन्यु] व सहस्' से परिपूर्ण होते हैं। इसके पाँचों कोश उस-उस ऐश्वर्य से परिपूर्ण होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणायाम के द्वारा सोम शरीर में ही गमनवाला होकर ऊर्ध्व गमनवाला होता है। ज्ञानाग्नि के दीपन में इसका व्यय होता है। इसके रक्षण से मनुष्य खूब क्रियामय जीवनवाला होता है और सदा प्रभु का मित्र बनता है। साथ रहनेवाला मित्र
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