Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 34
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    0

    यम॒श्विना॒ नमु॑चेरासु॒रादधि॒ सर॑स्व॒त्यसु॑नोदिन्द्रि॒याय॑। इ॒मं तꣳ शु॒क्रं मधु॑मन्त॒मिन्दु॒ꣳ सोम॒ꣳ राजा॑नमि॒ह भ॑क्षयामि॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम्। अ॒श्विना॑। नमु॑चेः। आ॒सु॒रात्। अधि॑। सर॑स्वती। असु॑नोत्। इ॒न्द्रि॒याय॑। इ॒मम्। तम्। शु॒क्रम्। मधु॑मन्तम्। इन्दु॑म्। सोम॑म्। राजा॑नम्। इ॒ह। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमश्विना नमुचेरासुरादधि सरस्वत्यसुनोदिन्द्रियाय । इमन्तँ शुक्रम्मधुमन्तमिन्दुँ सोमँ राजानमिह भक्षयामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। अश्विना। नमुचेः। आसुरात्। अधि। सरस्वती। असुनोत्। इन्द्रियाय। इमम्। तम्। शुक्रम्। मधुमन्तम्। इन्दुम्। सोमम्। राजानम्। इह। भक्षयामि॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. मैं (इह) = इस मानव-जीवन में (तम्) = उस २. [क] (शुक्रम्) = [शीघ्रं बलकरम्] शीघ्रबलकारी = जिसके होने पर मनुष्य शीघ्रता से शक्तिपूर्वक कार्यों को करता है। [ख] (मधुमन्तम्) = माधुर्यवाले-जो मेरे व्यवहार को मधुर बनाता है। [ग] (इन्दुम्) = [इन्द् to be powerful] परमैश्वर्यकारक तथा [घ] (राजानं सोमम्) = मेरे जीवन को दीप्त बनानेवाले सोम-वीर्य को (भक्षयामि) = अपने में धारण करता हूँ, अपने शरीर का अङ्ग बनाता हूँ। २. उस सोम को मैं अपने शरीर का अङ्ग बनाता हूँ (यम्) = जिसको (आश्विनौ) = प्राणापान (आसुरात्) = असुरवृत्तियों के लिए हितकर, अर्थात् आसुर भावनाओं को पनपानेवाले (नमुचेः) = [ न मुच्]= पीछा न छोड़नेवाले [Last infirmity of noble minds] इस अहंकार नामक असुरराज से (अधि) = [आश्विनौ ह्येनं नमुचेरध्याहरताम्। - श० १२.८.१.३] ऊपर उठानेवाले हुए, अर्थात् प्राणापान की साधना का परिणाम यह हुआ कि इस वीर्य के कारण इसके अधिष्ठानभूत वीर पुरुष में अहंकार की भावना उत्पन्न नहीं हुई । एवं प्राणायाम के अभ्यास के अभाव में यह वीर्य राजसरूप धारण करके मनुष्य को अहंकारी बना देता है। प्राणायाम से सात्त्विकता बनी रहती है और अहंकार की उत्पत्ति नहीं होती। यही अश्विनीदेवों का नमुचि से सोम का अध्याहरण है, अंहकार से ऊपर उठाना है। ३. अब अश्विनीदेवों द्वारा नमुचि से अध्याहरित इस सोम को (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता (इन्द्रियाय) = इन्द्र के शरीर के लिए (असुनोत्) = सिद्ध करती है। अहंकार से ऊपर उठे हुए पुरुष का वीर्य उसकी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और उसकी शक्ति का वर्धन करनेवाला होता है। वस्तुतः ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहना वीर्यरक्षा का सुन्दर साधन है। वीर्य का ज्ञानाग्नि दीपन में विनियोग होकर उस का सुन्दर सद्व्यय हो जाता है, उससे आत्मा की शक्ति का वर्धन होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणायाम की साधना वीर्य की केवल रक्षा ही नहीं करती,अपितु उस वीरपुरुष को अभिमान का शिकार भी नहीं होने देती । 'ज्ञान प्राप्ति में लगना उस वीर्य का सद्व्यय करके आत्मशक्ति को बढ़ानेवाला होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top