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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 54
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    त्वꣳ सो॑म पि॒तृभिः॑ संविदा॒नोऽनु॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽआ त॑तन्थ। तस्मै॑ तऽइन्दो ह॒विषा॑ विधेम व॒य स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम्॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। सो॒म॒। पि॒तृभि॒रिति॑ पि॒तृऽभिः॑। सं॒वि॒दा॒न इति॑ सम्ऽविदा॒नः। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। आ। त॒त॒न्थ॒। तस्मै॑। ते॒। इ॒न्दो॒ऽइति॑ इन्दो। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वँ सोम पितृभिः सँविदानोनु द्यावापृथिवीऽआ ततन्थ । तस्मैऽत इन्दो हविषा विधेम वयँ स्याम पतयो रयीणाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सोम। पितृभिरिति पितृऽभिः। संविदान इति सम्ऽविदानः। अनु। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। आ। ततन्थ। तस्मै। ते। इन्दोऽइति इन्दो। हविषा। विधेम। वयम्। स्याम। पतयः। रयीणाम्॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 54
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    पदार्थ -
    १. हे (सोम) = शान्तात्मन् आचार्य ! (त्वम्) = आप (पितृभिः) = मेरे संरक्षकों के साथ (संविदानः) = सम्यक् ऐकमत्यवाले होते हुए-संज्ञानवाले होते हुए (द्यावापृथिवी अनु) = मस्तिष्क व शरीर का लक्ष्य करके (आततन्थ) = मेरी शक्तियों का विस्तार कीजिए। आचार्य व माता-पिता ने परस्पर विचार करके एक मतिवाला होकर विद्यार्थियों के जीवन को उन्नत करने का प्रयत्न करना है । उनके सब प्रयत्नों व कर्मों का लक्ष्य यही हो कि इनके ज्ञान का विकास हो तथा इनके शरीर स्वस्थ बनें। जैसे यह द्युलोक बड़ा उग्र व तेजस्वी है, उसी प्रकार इनके मस्तिष्करूप द्युलोक भी ज्ञान के सूर्य व विज्ञान के नक्षत्रों से देदीप्यमान हों तथा जैसे यह पृथिवी दृढ़ है, इसी प्रकार इनका यह शरीर दृढ़ हो, पत्थर के समान पक्का हो । इनको 'ज्ञान से दीप्त, शरीर से दृढ़' बनाना ही इनका लक्ष्य हो। २. हे (इन्दो) = ज्ञान के परमैश्वर्यवाले आचार्य! (तस्मै ते) = उस तेरे लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन करते हुए हम (विधेम) = पूजा करनेवाले हों। हमारी इस हविर्वृत्ति से आपका यश चारों ओर फैले। हमारे जीवन की यह वृत्ति आपके यश को फैलानेवाली हो कि इन शिष्यों को अमुक आचार्य ने शिक्षित किया है । ३. आपके शिक्षण का हमारे जीवन में यह परिणाम हो कि (वयम्) = हम (रयीणाम्) = धनों के (पतयः) = स्वामी न कि दास (स्याम) = हों। इस संसार में हम कभी भी धन के दास न बन जाएँ। धन के दास बने और हमारी यज्ञशेष को खाने की वृत्ति नष्ट हुई और इस प्रकार उत्पन्न हुई हुई स्वार्थपरता हमें धर्मशून्य बना देगी। हमारी धर्मशून्यता आपके भी अपयश का कारण बनेगी।

    भावार्थ - भावार्थ- आचार्य व माता-पिता का प्रयत्न हमें ज्ञानोज्ज्वल व स्वस्थ शरीरवाला बनाए। हम स्वार्थ की वृत्ति से ऊपर उठे रहें, कभी धन के दास न बनें।

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