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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 17
    ऋषिः - देवल ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् जगती, स्वरः - निषादः
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    य प॑रि॒धिं प॒र्य्यध॑त्था॒ऽअग्ने॑ देवप॒णिभि॑र्गु॒ह्यमा॑नः। तं त॑ऽए॒तमनु॒ जोषं॑ भराम्ये॒ष मेत्त्वद॑पचे॒तया॑ताऽअ॒ग्नेः प्रि॒यं पाथो॑ऽपी॑तम्॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम्। प॑रि॒धिम्। परि॒। अध॑त्थाः। अग्ने॑। दे॒व॒। प॒णिभि॒रिति॑ प॒णिऽभिः॑। गु॒ह्यमा॑नः। तम्। ते॒। ए॒तम्। अनु॑। जोष॑म्। भ॒रा॒मि॒। ए॒षः। मा। इत्। त्वत्। अ॒प॒। चे॒तया॑तै। अ॒ग्नेः। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपी॑तम् ॥१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं परिधिम्पर्यधत्थाऽअग्ने देव पाणिभिर्गुह्यमानः । तन्तऽएतमनु जोषम्भराम्येषनेत्त्वदपचेतयाताऽअग्नेः प्रियम्पाथो पीतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। परिधिम्। परि। अधत्थाः। अग्ने। देव। पणिभिरिति पणिऽभिः। गुह्यमानः। तम्। ते। एतम्। अनु। जोषम्। भरामि। एषः। मा। इत्। त्वत्। अप। चेतयातै। अग्नेः। प्रियम्। पाथः। अपीतम्॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र के अन्तिम शब्दों के अनुसार जब मनुष्य का संसार में रहने का दृष्टिकोण ठीक होता है तब वह ‘बृहस्पति व ब्रह्मा’ बनने के मार्ग पर चलता है, नकि मौज के मार्ग पर। यह प्रार्थना करता है— ( अग्ने ) = हे प्रकाशमय प्रभो! ( देवपणिभिः ) = दिव्य गुणोंवाले स्तोताओं से [ पण् = स्तुति ] ( गुह्यमानः ) = [ गुह = Hug, to emberace ] आलिङ्गन किये जाते हुए आप ( यं परिधिम् ) = जिस मर्यादा को ( पर्यधत्थाः ) = धारण करते हो, ( ते ) = आपकी ( तं एतम् ) = उस प्रसिद्ध मर्यादा को ( जोषम् ) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ ( अनुभरामि ) = मैं अपने अन्दर भरता हूँ, अर्थात् आपने जिन मर्यादाओं को उपदिष्ट किया है मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ, उन मर्यादाओं का बड़े प्रेम से पालन करता हूँ। 

    २. ( एषः ) = यह मैं ( त्वत् ) = आपसे ( न अपचेतयाता ) =  विस्मरण के कारण दूर नहीं होता। ( इत् ) = निश्चय से मैं यह संकल्प करता हूँ कि संसार में आने के अपने उद्देश्य को मैं भूलूँगा नहीं। आपका स्मरण करता हुआ मैं सदा मर्यादाओं का पालन करूँगा और अपने इस मानव-जीवन में आगे और आगे बढ़ता हुआ उत्तम सात्त्विक गतिवाला ब्रह्मा व बृहस्पति [ महान् ] बनकर रहूँगा।

    ‘मैं ऐसा बन सकूँ’ इसके लिए प्रार्थना करता हूँ कि ( अग्नेः ) = संसार के अग्रणी प्रभु का  ( प्रियं पाथः ) = प्रीति देनेवाला रक्षण ( अपीतम् ) = [ अपि-इतम् ] मुझे अवश्य प्राप्त हो। प्रभु के रक्षण के बिना मैं इस उच्च स्थिति में क्या पहुँच पाऊँगा ? ‘पाथः’ शब्द का अर्थ अन्न भी है, अतः मुझे ( प्रियम् ) = प्रीतिकर, अर्थात् सात्त्विक ( पाथः ) = अन्न प्राप्त हो। सात्त्विक अन्न के सेवन से मेरी बुद्धि सात्त्विक बनी रहेगी और मैं मार्ग से विचलित न होऊँगा।

    भावार्थ -

    भावार्थ — मैं प्रभु द्वारा स्थापित मर्यादा का पालन करूँ। मुझे प्रभु का कभी विस्मरण न हो और मैं प्रभु का रक्षण प्राप्त करूँ।

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