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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    गोभि॒र्न सोम॑मश्विना॒ मास॑रेण परि॒स्रुता॑।सम॑धात॒ꣳ सर॑स्वत्या॒ स्वाहेन्द्रे॑ सु॒तं मधु॑॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोभिः॑। न। सोम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। मास॑रेण। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सम्। अ॒धा॒त॒म्। सर॑स्वत्या। स्वाहा॑। इन्द्रे॑। सु॒तम्। मधु॑ ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोभिर्न सोममश्विना मासरेण परिस्रुता । समधातँ सरस्वत्या स्वाहेन्द्रे सुतम्मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गोभिः। न। सोमम्। अश्विना। मासरेण। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सम्। अधातम्। सरस्वत्या। स्वाहा। इन्द्रे। सुतम्। मधु॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 66
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    पदार्थ -
    १. (अश्विना) प्राणापान (गोभिः न) = [नश्चार्थे - म० ] ज्ञानेन्द्रियों के साथ अथवा ज्ञान की वाणियों के साथ (सोमम्) = सोम को (समधातम्) = धारण करते हैं । २. (परिस्रुता) = सोम के परितः स्रवण व व्यापन के साथ (मासरेण) = [मासेषु रमण] प्रत्येक मास में रमण के साथ सोम को धारण करते हैं, अर्थात् शरीर में सोम का व्यापन होने पर सारे महीने व सारी ऋतुएँ अच्छी-ही-अच्छी लगती हैं। ३. (सरस्वत्या) = ज्ञानाधिदेवता के साथ (स्वाहा) = स्वार्थत्याग की भावना (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (सुतम्) = सोम को तथा (मधु) = माधुर्य को धारण करती है। ४. यदि हम चाहते हैं कि [क] हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक बनी रहें, हमें ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त हों [गोभि:], [ख] हमें सब मास अच्छे ही अच्छे लगे [ मासरेण], [ग] हमारी सब क्रियाएँ माधुर्य को लिये हुए हों [मधु] तो आवश्यक है कि हम प्राणापान की साधना करें [अश्विना], स्वाध्यायशील हों [सरस्वती], हममें स्वार्थत्याग की भावना हो [ स्वाहा ] ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम सोमरक्षा द्वारा अपने जीवन को ज्ञानसम्पन्न, प्रसन्नता से युक्त मनवाला तथा माधुर्यमय बनाएँ।

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