यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 37
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - अश्व्यादयो देवताः
छन्दः - धृतिः
स्वरः - ऋषभः
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होता॑ यक्षत् ति॒स्रो दे॒वीर्न भे॑ष॒जं त्रय॑स्त्रि॒धात॑वो॒ऽपसो॑ रू॒पमिन्द्रे॑ हिर॒ण्यय॑म॒श्विनेडा॒ न भार॑ती वा॒चा सर॑स्वती॒ मह॒ऽइन्द्रा॑य दु॒हऽइ॑न्द्रि॒यं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३७॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। ति॒स्रः। दे॒वीः। न। भे॒ष॒जम्। त्रयः॑। त्रि॒धात॑व॒ इति॑ त्रि॒ऽधात॑वः। अ॒पसः॑। रू॒पम्। इन्द्रे॑। हि॒र॒ण्यय॑म्। अ॒श्विना॑। इडा॑। न। भार॑ती। वा॒चा। सर॑स्वती। महः॑। इन्द्रा॑य। दु॒हे॒। इ॒न्द्रि॒यम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षत्तिस्रो देवीर्न भेषजन्त्रयस्त्रिधातवो पसो रूपमिन्द्रे हिरण्ययमश्विनेडा न भारती वाचा सरस्वती महऽइन्द्राय दुहऽइन्द्रियम्पयः सोमः परिस्रुता घृतम्मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। तिस्रः। देवीः। न। भेषजम्। त्रयः। त्रिधातव इति त्रिऽधातवः। अपसः। रूपम्। इन्द्रे। हिरण्ययम्। अश्विना। इडा। न। भारती। वाचा। सरस्वती। महः। इन्द्राय। दुहे। इन्द्रियम्। पयः। सोमः। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। घृतम्। मधु। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥३७॥
विषय - तिस्रो देवीर्यजन
पदार्थ -
१. (होता) = यह दानपूर्वक अदन करनेवाला (तिस्रः देवी:) = ' इडा, सरस्वती, भारती' = श्रद्धा, ज्ञान व वाणी- इन तीन देवियों को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है। (न भेषजम्) = और अपने साथ औषध को सङ्गत करता है। इडा श्रद्धा मन के दोषों को दूर करके मानस आरोग्य प्राप्त कराती है, सरस्वती मस्तिष्क को ज्ञान से परिपूर्ण करके मस्तिष्क को उज्ज्वल करती है तथा भारती सब इन्द्रियों के भरण का कारण बनती है। ३. (त्रयः) = तीन (त्रिधातवः) = प्राणमयकोश, मनोमयकोश तथा विज्ञानमयकोश का धारण करनेवाले (अपस:) = कर्मशील (अश्विना) = प्राणापान (इडा) = श्रद्धा (न) = और (भारती वाचा) = [ ज्ञान की वाणी] इन्द्रे जितेन्द्रिय पुरुष में (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय स्वर्ण के समान देदीप्यमान रूपम् रूप को धारण करते हैं। प्राणापान 'प्राणमयकोश' को दीप्त करते हैं तो श्रद्धा 'मनोमयकोश' को पूर्ण स्वस्थ करके दीप्त करती है और ज्ञान की वाणी मस्तिष्क की नीरोगता का कारण बनती है । ३. (वाचा) = ज्ञान की वाणियों के साथ (सरस्वती) = यह ज्ञानाधिदेवता (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (महः) = तेजस्विता को तथा (इन्द्रियम्) = इन्द्रियशक्तियों को (दुहे) = पूरित करती है। ज्ञान वासनाओं को विनष्ट करता है, वासना-विनाश से जीवन भोगप्रवण नहीं होता। भोग ही वस्तुतः शक्ति को व इन्द्रियों के तेज को क्षीण करते हैं। ४. यह भोगों से ऊपर उठनेवाला व्यक्ति प्रार्थना करता है कि मुझे (पयः सोमः) = दूध, सोमरस (परिस्रुता घृतं मधु) = फलों के रस के साथ घी और शहद आदि उत्तम पदार्थ ही व्यन्तु प्राप्त होते हैं । ५. इस प्रार्थी को प्रभु प्रेरणा प्राप्त कराते हैं कि (होत:) = दानपूर्वक अदन करनेवाले ! (आज्यस्य यज) = तू घृत का यजन करनेवाला बन। यह अग्नि में डाला हुआ घृत तेरा अधिक कल्याण करेगा।
भावार्थ - भावार्थ- हम त्यागपूर्वक उपभोग करनेवाले बनकर 'इडा, सरस्वती, भारती' रूप तीनों देवियों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करें। ये तीनों 'मन, मस्तिष्क व शरीर' में हमारा धारण करनेवाली हैं। हमें दूध आदि उत्तमोत्तम पदार्थ प्राप्त हों। हम यज्ञों में उनका विनियोग करते हुए यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें।
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