यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 41
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - अतिधृतिः
स्वरः - षड्जः
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होता॑ यक्षद॒श्विनाै॒ छाग॑स्य व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षेता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒त्सर॑स्वतीं मे॒षस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४१॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। छाग॑स्य। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षेता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्सर॑स्वतीम्। मे॒षस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षदश्विनौ च्छागस्य वपाया मेदसो जुषेताँ हविर्हातर्यज । होता यक्षत्सरस्वतीम्मेषस्य वपाया मेदसो जुषताँ हविर्हातर्यज । होता यक्षदिन्द्रमृषभस्य वपाया मेदसो जुषताँ हविर्हातर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। अश्विनौ। छागस्य। वपायाः। मेदसः। जुषेताम्। हविः। होतः। यज। होता। यक्षत् सरस्वतीम्। मेषस्य। वपायाः। मेदसः। जुषताम्। हविः। होतः। यज। होता। यक्षत्। इन्द्रम्। ऋषभस्य। वपायाः। मेदसः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४१॥
विषय - छाग- मेष- ऋषभ
पदार्थ -
१. होता = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला अश्विनौ प्राणापान को यक्षत्=अपने साथ सङ्गत करता है और इसी उद्देश्य से प्रभु उससे कहते हैं कि हे होतः = यज्ञशील पुरुष ! तेरे ये प्राणापान छागस्य अजमोद ओषधि के वपाया मेदसः - (वप = मुण्डन- छेदन) रोग का छेदन करनेवाले गूदे के भाग का जुषेताम् = सेवन करें, तथा तू हविः यज-इस अजमोद ओषधि को हविरूप में अग्नि के साथ सङ्गत कर, अर्थात् इस ओषधि की अग्नि में आहुतियाँ दे । २. होता यह दानपूर्वक अदन करनेवाला सरस्वती - ज्ञानाधिदेवता को यक्षत् - अपने साथ सङ्गत करता है और इसी उद्देश्य से प्रभु उससे कहते हैं कि होतः = हे यज्ञशील पुरुष ! तू मेषस्य = मेढासिंगी ओषधि के वपाया मेदसः = रोगछेदक गूदे के भाग को जुषताम् = = सेवन कर तथा हविः यज - हविरूप में अग्नि के साथ इसे सङ्गत कर। इस ओषधि की अग्नि में आहुतियाँ दे । ३. होता यह यज्ञशेष का भोजन करनेवाला पुरुष (इन्द्रम्) = आत्मशक्ति को = (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करे। इसी उद्देश्य से वह (ऋषभस्य) = ऋषभक ओषधि के वपाया (मेदसः) = रोगछेदन करनेवाले औषध - गुणयुक्त मध्यभाग का (जुषताम्) = सेवन करे। प्रभु कहते हैं कि (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू (हविः यज) = हविरूप में इनका यजन करनेवाला बन ।
भावार्थ - भावार्थ - इस यज्ञमय जीवन में हम अजमोद ओषधि के प्रयोग व यज्ञ से प्राणापान शक्ति का वर्धन करें। मेढ़ासिंगी ओषधि के प्रयोग से हम मस्तिष्क की शक्ति का विकास करें तथा ऋषभक ओषधि का प्रयोग हमारी आत्मशक्ति का विकास करे।
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