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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 54
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दे॒वीस्ति॒स्रस्ति॒स्रो दे॒वीर॒श्विनेडा॒ सर॑स्वती। शूषं॒ न मध्ये॒ नाभ्या॒मिन्द्रा॑य दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वीः। ति॒स्रः। ति॒स्रः। दे॒वीः। अ॒श्विना॑। इडा॑। सर॑स्वती। शूष॑म्। न। मध्ये॑। नाभ्या॑म्। इन्द्रा॑य। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीरश्विनेडा सरस्वती । शूषन्न मध्ये नाभ्यामिन्द्राय दधुरिन्द्रियँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। तिस्रः। तिस्रः। देवीः। अश्विना। इडा। सरस्वती। शूषम्। न। मध्ये। नाभ्याम्। इन्द्राय। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 54
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    पदार्थ -
    १. (देवी: तिस्रः) = तीन देवियाँ जो (तिस्रः) = तीनों (देवी:) = सचमुच दिव्य गुणोंवाली हैं। उनमें प्रथम (अश्विना) = [श्रोत्रे अश्विनौ - श० १२।९।१।१३] श्रोत्र हैं, अर्थात् श्रोत्रों से सुनी जानेवाली 'भारती' है। वाणी जिसको श्रोत्रों से सुना जाता है उसे यहाँ 'अश्विनौ' = श्रोत्रशब्द से इसलिए स्मरण किया कि हम वाणी से सुनने के महत्त्व को समझें, बोलने का उतना महत्त्व नहीं है। वस्तुतः सुनी जाती हुई वाणी हमारा भरण करनेवाली सचमुच 'भारती' होती है। दूसरी ('इडा') = श्रद्धा है, इसका स्थान हृदय में है। तीसरी (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता है, जिसका निवास मस्तिष्क में है। २. ये तीनों देवियाँ मध्ये (नाभ्याम्) = शरीर के केन्द्रभूत नाभि में (शूषम्) = सब अवाञ्छनीय तत्त्वों के शोषक बल को (दधुः) = धारण करती हैं (न) तथा (इन्द्राय) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता पुरुष के लिए (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को धारण करती हैं । ३. (वसुवने) = निवासक तत्त्वों की प्राप्ति के लिए ये (वसुधेयस्य) = वीर्य का (व्यन्तु) = शरीर में व्यापन करें। ४. इस सबके लिए प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (यज) = यज्ञशील बन।

    भावार्थ - भावार्थ-' अश्विनौ' श्रोत्रों से सुनी जानेवाली वाणी [भारती], श्रद्धा [इडा] तथा ज्ञान [सरस्वती] हमारी नाभि में उस केन्द्रशक्ति को धारण करते हैं, जिससे सब अवाञ्छनीय तत्त्वों का शोषण होता है। हम उत्तम निवास के लिए वीर्य का शरीर में व्यापन करें और यज्ञशील हों।

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