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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 29
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यद्दे॒वासो॑ ल॒लाम॑गुं॒ प्र वि॑ष्टी॒मिन॒मावि॑षुः। स॒क्थ्ना दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॑ यथा॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। दे॒वासः॑। ल॒लाम॑गु॒मिति॑ ल॒लाम॑ऽगुम्। प्र। वि॒ष्टी॒मिन॑म्। आवि॑षुः। स॒क्थ्ना। दे॒दि॒श्य॒ते॒। नारी॑। स॒त्यस्य॑। अ॒क्षि॒भुव॒ इत्य॑क्षि॒ऽभुवः॑। य॒था॒ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्देवासो ललामगुम्प्र विष्टीमिनमाविषुः । सक्थ्ना देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। देवासः। ललामगुमिति ललामऽगुम्। प्र। विष्टीमिनम्। आविषुः। सक्थ्ना। देदिश्यते। नारी। सत्यस्य। अक्षिभुव इत्यक्षिऽभुवः। यथा॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -
    १. राजा के राजकार्य में सहायकरूप से जो दशावरा व त्र्यवरा परिषद् बनती हैं उनका मुख्य उद्देश्य 'प्रजा का हित करना' है, अतः नर - हितकारिणी यह सभा यहाँ प्रस्तुत मन्त्र में 'नारी' शब्द से कही गई है। इस सभा में (यत्) = जब (ललामगुम्) = सुन्दर वाणीवाले [ललाम= सुन्दर, गो-वाणी] तथा (विष्टीमिन्) = विशेषरूप से प्रजा के लिए करुणार्द्रभाववाले [स्नीम् - आर्द्राभावे] राजा को (देवासः) = विद्वान् लोग, व्यवहारकुशल विद्वान् (प्र अमाविषुः) = प्रकर्षेण व्याप्त कर लेते हैं तब वे (यथा) = जैसे (सत्यस्य अक्षिभुवः) = सत्य की आँखों से देखनेवाले होते हैं, उसी प्रकार अर्थात् उसी अनुपात में नारी वह नरहितकारिणी सभा (सक्थ्ना) = [षच सवने सचने च षच् समवाये] सेवन की वृत्ति से, प्रजा पर सुख का सेचन करने से तथा अपने अन्दर समवाय व मेल से (देदिश्यते) = [Point out] संकेतित होती है, अर्थात् उस सभा के ये तीन मुख्य गुण हैं, [क] वह प्रजा की सेवा करनेवाली होती है, [ख] प्रजा पर सुखों का सेचन करती है और [ग] उस सभा के सभ्यों में परस्पर मेल होता है, वहाँ पक्ष, प्रति पक्ष की फूट प्रबल नहीं हो पाती । २. मन्त्रार्थ से स्पष्ट है- राजा सभा में कभी कटु वाणी नहीं बोलता, वह 'ललामगु' होता है। अथर्व० ७।१२।१। में राजा कहता है कि ('चारु वदानि पितरः संगतेषु') = हे सभासदो! मैं सभा के सभ्यों के एकत्र होने पर सदा सुन्दर शब्द ही बोलूँ। ३. अथर्व ७।१२।२ में इस सभा को नरिष्टा मनुष्यों के लिए इष्ट को सिद्ध करनेवाली' शब्द से स्मरण किया गया है। यही भाव यहाँ 'नारी' शब्द से कहा गया है ('विद्म सभे ते नाम नरिष्टा नाम वा असि') । ४. सभा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वहाँ पार्टीबाजी व वैमनस्य नहीं । ('ये ते के च सभासदः ते मे सन्तु सवाचसः') [अ० ७।१२।२] सब सभासद् ऐकमत्यवाले हों। जितना जितना सभासद सत्य की ओर झुकाववाले होंगे, सत्य की ही आँख से देखनेवाले होंगे उतना उतना वे परस्पर समीप होंगे। ५. ‘प्र अमाविषुः’=व्याप्त करते हैं। यह शब्द स्पष्ट कह रहा है कि राजा विद्वानों से ही घिरा होगा तो सभा प्रजा का कल्याण करनेवाली होगी, खुशामदियों से घिरा होगा तो वह राजा प्रजा का क्या कल्याण कर पाएगा?

    भावार्थ - भावार्थ - जब राजा को विद्वान् लोग व्याप्त करते हैं तभी राजसभा प्रजा की सेवा कर पाती है।

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