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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 46
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सूर्यादयो देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सूर्य्य॑ऽएका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुनः॑।अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत्॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य्यः॑। ए॒का॒की। च॒र॒ति॒। च॒न्द्रमाः॑। जा॒य॒ते॒। पुन॒रिति॒ऽपुनः॑। अ॒ग्निः। हि॒मस्य॑। भे॒ष॒जम्। भूमिः॑। आ॒वप॑न॒मित्या॒ऽवप॑नम्। म॒हत्॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यऽएकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निर्धिमस्य भेषजम्भूमिरावपनम्महत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य्यः। एकाकी। चरति। चन्द्रमाः। जायते। पुनरितिऽपुनः। अग्निः। हिमस्य। भेषजम्। भूमिः। आवपनमित्याऽवपनम्। महत्॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्रों के अनुसार शरीर के स्वस्थ व शमगुणयुक्त होने पर मनुष्य उत्तम ज्ञानचर्चाएँ करते हुए परस्पर प्रश्नोत्तर के प्रकार से ज्ञान का विस्तार करते हैं और उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न उपस्थित करते हैं- [क] (स्वित्) = भला (क:) = कौन एकाकी अकेला (चरति) = विचरता है? किसे दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती ? [ख] (कः स्वित्) = कौन भला (पुनः) = फिर जायते विकास को प्राप्त करता है? [ग] (किं स्वित्) = भला क्या (हिमस्य भेषजम्) = हिम का, ठण्डक का औषध है ? [घ] (उ) = और (किम्) = क्या (महत्) = महान् (आवपनम्) = बोने का स्थान है? २. इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (सूर्य:) = सूर्य (एकाकी चरति) = अकेला विचरता है। पृथिवी आदि सूर्य से आकृष्ट होकर उसके चारों ओर घूमें तो घूमें, सूर्य को इनकी अपेक्षा नहीं। इसी प्रकार अपराश्रित रूप से विचरनेवाला व्यक्ति ही सूर्य की भाँति चमकता है। स्वतन्त्रता में ही चमक है, [ख] (चन्द्रमा) = चाँद (पुन:) = फिर, कृष्णपक्ष में क्षीण होकर शुक्लपक्ष में फिर से जायते - विकसित हो जाता है। शरीर में यही चन्द्रमा मन है और मन के विकास के अनुपात में ही मनुष्य का विकास होता है, [ग] (हिमस्य) = ठण्डक का (भेषजम्) = औषध (अग्निः) = अग्नि है। शरीर में वाणी ही अग्नि है। यह वाणी किसी भी ठण्डे पड़े आन्दोलन को फिर से प्रचण्ड कर देने का सामर्थ्य रखती है, [घ] (भूमिः) = यह भूमि ही (महत् आवपनम्) = सबसे महत्त्वपूर्ण बोने का स्थान है। 'पृथिवी शरीरम्' अध्यात्म में शरीर ही पृथिवी है। मनुष्य इसी में वीर्य का वपन करता है। शरीर में वीर्य को सुरक्षित करने पर ही यह बीज ज्ञानाङ्कुर व अन्य दिव्यांकुरों को जन्म देनेवाला होता है।

    भावार्थ - भावार्थ - हम अपराश्रित होकर विचरेंगे तो सूर्य की भाँति चमकेंगे। मन को विकसित करके अपने विकास को साधेंगे। वाणी से उत्साह का सञ्चार करेंगे तो शरीर एवं पृथिवी को बीज - [वीर्य] - वपन का स्थान बनाते हुए ज्ञान व दिव्य गुणों के अंकुरों को प्रादुर्भूत करनेवाले होंगे।

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