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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 56
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - समाधाता देवता छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अ॒जारे॑ पिशङ्गि॒ला श्वा॒वित्कु॑रुपिशङ्गि॒ला।श॒शऽआ॒स्कन्द॑मर्ष॒त्यहिः॒ पन्थां॒ वि स॑र्पति॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जा। अ॒रे॒। पि॒श॒ङ्गि॒ला। श्वा॒वित्। श्व॒विदिति॑ श्व॒ऽवित्। कु॒रु॒पिश॒ङ्गि॒लेति॑ कुरुऽपिशङ्गि॒ला। श॒शः। आ॒स्कन्द॒मित्या॒ऽस्कन्द॑म्। अ॒र्ष॒ति॒। अहिः॑। पन्था॑म्। वि। स॒र्प॒ति॒ ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजारे पिशङ्गिला श्वावित्कुरुपिशङ्गिला । शशऽआस्कन्दमर्षत्यहिः पन्थाँविसर्पति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अजा। अरे। पिशङ्गिला। श्वावित्। श्वविदिति श्वऽवित्। कुरुपिशङ्गिलेति कुरुऽपिशङ्गिला। शशः। आस्कन्दमित्याऽस्कन्दम्। अर्षति। अहिः। पन्थाम्। वि। सर्पति॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 56
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्रों में पिछले मन्त्रों के अन्तिम प्रश्न को फिर से दुहराया गया है। दुहराने का कारण यह है कि 'प्रलयकाल के समय शरीर प्रकृति में विलीन हो जाते हैं' तो आत्मा कहाँ रहती है? इसका स्पष्टीकरण अभीष्ट है, अतः प्रश्न को भी दो भागों में बाँटकर दो प्रश्नों के रूप में करते हुए पूछते हैं कि (अरे) = अयि क्रियाशील विद्वन्! [ऋ गतौ ] (ईम्) = निश्चय से (पिशङ्गिला का) = सब रूपों को निगीर्ण कर जानेवाली कौन वस्तु है और (ईम्) = निश्चय से (का) = कौन (कुरुपिशङ्गिला) = [कर्मकर्तुः जीवस्य पिशङ्गिलति ] इस कर्म करनेवाले जीव के रूप को निगलनेवाली है। २. तीसरा प्रश्न है कि (ईम्) = निश्चय से (कः) = कौन (आस्कन्दम्) = समन्तात् शत्रुशोषण को (अर्षति) = प्राप्त होता है, अर्थात् कौन शत्रुओं का शोषण करता है? तथा चौथे प्रश्न में पूछते हैं कि (ईम्) = निश्चय से (कः) = कौन (पन्थाम्) = मार्ग पर (विसर्पति) = विशिष्ट रूप से गति करता है? ३. इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अरे) = अयि प्रश्नकर्त: ! तू यह समझ कि (अजा) = प्रकृति (पिशङ्गिला) = सब रूपों को अपने में निगीर्ण कर लेती है। जैसे घड़ा टूटता है, पिसते पिसते मिटी बन जाता है। घड़े के रूप को मिट्टी अपने में निगीर्ण कर लेती है। इसी प्रकार वे सब सूर्य, चन्द्र, तारों के आकार प्रलय के समय प्रकृति में छिप जाएँगे। मनु के शब्दों में यह सारा संसार प्रकृति में जा सोएगा [प्रसुप्तमिव सर्वतः । ] ४. दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जब जीव का यह भौतिक शरीर प्रकृति में चला जाएगा उस समय इस जीव को प्रभु अपने में स्थापित कर लेंगे। वे (श्वावित्) = [मातरिश्वा श्वा, जैसे सत्यभामा-भामा] जीव को सदा प्राप्त [विद् = लाभ] होनेवाले, जीव के सतत सखा प्रभु [ सयुजा सखाया] (कुरुपिशङ्गिला) = इस क्रियाशील चेतन जीव के रूप को अपने में धारण कर लेंगे, जैसे रात्रि के समय बच्चा माता की गोद में आराम से सोया हुआ होता है, उसी प्रकार प्रलयकाल में प्रभु हम जीवों को अपनी गोद में सुलानेवाले होंगे। कुछ देर के लिए हमारे सारे कष्ट समाप्त हो जाएँगे। हम सुषुप्ति में होंगे और ब्रह्मरूप से होंगे। ('समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता') = [सांख्य] । ५. तृतीय प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है कि (शश) = प्लुतगतिवाला पुरुष, आलस्यशून्य कर्म करनेवाला पुरुष ही (आस्कन्दम्) = चारों ओर से आक्रमण करनेवाले काम-क्रोध- आदि शत्रुओं के शोषण को (अर्षति) = प्राप्त करता है। क्रियाशीलता में ही काम-क्रोधादि शत्रुओं का विनाश है। ६. चौथे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अहि:) = [ न हन्ति अथवा अह्नोति अह व्याप्तौ ] न हिंसा करनेवाला व्यक्ति तथा सदा लोकहित के व्यापक कर्मों में लगे रहनेवाला व्यक्ति ही (पन्थां विसर्पति) = उत्कृष्ट मार्ग पर चलता है, अर्थात् संसार में मार्गभ्रष्ट वही व्यक्ति है जो [क] हिंसारत है, [ख] व्यापक मनोवृत्ति बनाकर कर्मों में नहीं लगा हुआ, [ग] स्वार्थी है।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रलयकाल के समय ये सब कार्यपदार्थ कारणप्रकृति में चले जाएँगे, जीव प्रभु की गोद में सो जाएँगे। 'फिर जन्म न हो' इसके लिए चाहिए कि क्रियाशीलता से कामादि शत्रुओं का हम शोषण कर दें और अहिंसक बनकर सदा व्यापक कर्मों में लगे रहें, स्वार्थ से सदा ऊपर उठे रहें ।

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