यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 39
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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यदश्वा॑य॒ वास॑ऽउपस्तृ॒णन्त्य॑धीवा॒सं या हिर॑ण्यान्यस्मै।स॒न्दान॒मर्व॑न्तं॒ पड्वी॑शं प्रि॒या दे॒वेष्वा या॑मयन्ति॥३९॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अश्वा॑य। वासः॑। उ॒प॒स्तृ॒णन्तीत्यु॑पऽस्तृ॒णन्ति॑। अ॒धी॒वा॒सम्। अ॒धि॒वा॒समित्य॑धिऽवा॒सम्। या। हिर॑ण्यानि। अ॒स्मै॒। स॒न्दान॒मिति॑ स॒म्ऽदान॑म्। अर्व॑न्तम्। पड्वी॑शम्। प्रि॒या। दे॒वेषु॑। आ। या॒म॒य॒न्ति॒। य॒म॒य॒न्तीति॑ यमयन्ति ॥३९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदश्वाय वासऽउपस्तृणन्त्यधीवासँया हिरण्यान्यस्मै । सन्दानमर्वन्तम्पड्वीशम्प्रिया देवेष्वा यामयन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। अश्वाय। वासः। उपस्तृणन्तीत्युपऽस्तृणन्ति। अधीवासम्। अधिवासमित्यधिऽवासम्। या। हिरण्यानि। अस्मै। सन्दानमिति सम्ऽदानम्। अर्वन्तम्। पड्वीशम्। प्रिया। देवेषु। आ। यामयन्ति। यमयन्तीति यमयन्ति॥३९॥
विषय - दैवी सम्पत्ति के साधन
पदार्थ -
१. जो (प्रिया) = प्रिय वस्तुएँ तुझे (देवेषु) = दिव्य गुणों में (आयामयन्ति) = [ आगमयन्ति ] प्राप्त कराती हैं, अर्थात् इन बातों के कारण तेरे जीवन में दिव्य गुणों का विकास होता है। २. कौन-सी प्रिय वस्तुएँ ? – [क] (यत्) = जो अश्वाय कर्मों में व्याप्त रहनेवाले क्रियाशील विद्यार्थी के लिए (वासः) = प्रकृति-विज्ञान की गन्ध को (उपस्तृणन्ति) = आच्छादित करती हैं, फैलाती हैं [to spread, to expand], [ख] इस प्रकृति-विज्ञान की गन्ध के साथ (अधीवासम्) = सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म-विद्या की गन्ध को भी इसके लिए प्राप्त कराती हैं। प्रकृति - विज्ञान को 'वास' कहा गया है तो ब्रह्मविज्ञान को 'अधीवास' नाम दिया गया है। प्रकृति विज्ञान की गन्ध जीवन को सुन्दरता से बिताने के लिए आवश्यक है तो आत्मज्ञान की उत्कृष्ट गन्ध [अधीवास] संसार के प्रलोभनों में न उलझने के लिए आवश्यक है। [ग] (या) = जो (अस्मै) = कर्मठ विद्यार्थी के लिए (हिरण्यानि) = 'हितरमणीयानि' हितरमणीय वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं, अर्थात् 'अभयं सत्त्वसंशुद्धिः' आदि दिव्य गुणों को जो ज्ञान के ही परिणाम हैं, इसके हृदय में स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। 'वास व अधीवास' ने मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाया था तो ये हिरण्य उसके हृदय को रमणीय बनाते हैं। [घ] (अर्वन्तम्) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले (सन्दानम्) = उदर व कटि के बन्धन को इसे प्राप्त कराते हैं। वस्तुतः भोजन का संयम व ब्रह्मचर्य का नियम हो जाने पर जीवन में बुराइयाँ समाप्त हो जाती हैं, इसीलिए 'संदानं' का यहाँ 'अर्वन्तं' ऐसा विशेषण दिया है। [ङ] (पड्वीशम्) = सन्दान के साथ इसे वे पादबन्धन भी प्राप्त कराते हैं, अर्थात् [पद् गतौ] इसकी गति व चाल-ढाल को बड़ा नियमित करते हैं। इस चाल-ढाल को नियमित करना ही 'अनुशासन 'discipline' में रखना कहलाता है। ये सब बातें इस विद्यार्थी में दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाली होती हैं। ३. मन्त्रार्थ में 'अश्व' शब्द यह सुस्पष्ट ध्वनित कर रहा है कि आचार्य अकर्मण्य व आलसी विद्यार्थी का निर्माण नहीं कर सकते। विद्यार्थी में दिव्य गुणों के विकास के लिए उसे प्रकृति-विज्ञान व आत्मज्ञान प्राप्त कराना आवश्यक है। अज्ञान को दूर किये बिना किसी भी प्रकार का निर्माण सम्भव नहीं होता। विद्यार्थी के हृदय में हितरमणीय बातों के प्रति रुचि उत्पन्न करना आवश्यक है। उसको (संदान) = उदरबन्धन - भोजन के संयम का महत्त्व समझाना आवश्यक है। इसी के साथ चाल-ढाल का मपा- तुला होना भी जीवन की पूर्णता के लिए आवश्यक है।
भावार्थ - भावार्थ - आचार्य कर्मठ विद्यार्थी को 'प्रकृति-विज्ञान, आत्मज्ञान, हितरमणीय बातों के प्रति रुचि, भोजन का संयम व गति का नियमन' इन बातों को प्राप्त कराके दैवी सम्पत्तिवाला बनाने का प्रयत्न करते हैं।
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