यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 46
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - भुरिक् शक्वरी
स्वरः - धैवतः
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इ॒मा नु कं॒ भुव॑ना सीषधा॒मेन्द्र॑श्च॒ विश्वे॑ च दे॒वाः। आ॒दि॒त्यैरिन्द्रः॒ सग॑णो म॒रुद्भि॑र॒स्मभ्यं॑ भेष॒जा क॑रत्। य॒ज्ञं च॑ नस्त॒न्वं च प्र॒जां चा॑दि॒त्यैरिन्द्रः॑ स॒ह सी॑षधाति॥४६॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा। नु। क॒म्। भुव॑ना। सी॒ष॒धा॒म॒। सी॒स॒धा॒मेति॑ सीसधाम। इन्द्रः॑। च॒। विश्वे॑। च॒। दे॒वाः। आ॒दि॒त्यैः। इन्द्रः॑। सग॑ण॒ इति॒ सऽग॑णः। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒स्मभ्य॑म्। भे॒ष॒जा। क॒र॒त्। य॒ज्ञम्। च॒। नः॒। त॒न्व᳖म्। च॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। च॒। आ॒दि॒त्यैः। इन्द्रः॑। स॒ह। सी॒ष॒धा॒ति॒। सि॒स॒धा॒तीति॑ सिसधाति ॥४६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा नु कम्भुवना सीषधामेन्द्रश्च विश्वे च देवाः । आदित्यैरिद्न्रः सगणो मरुद्भिरस्मभ्यम्भेषजा करत् । यज्ञञ्च नस्तन्वञ्च प्रजाञ्चादित्यैरिन्द्रः सह सीषधाति ॥
स्वर रहित पद पाठ
इमा। नु। कम्। भुवना। सीषधाम। सीसधामेति सीसधाम। इन्द्रः। च। विश्वे। च। देवाः। आदित्यैः। इन्द्रः। सगण इति सऽगणः। मरुद्भिरिति मरुत्ऽभिः। अस्मभ्यम्। भेषजा। करत्। यज्ञम्। च। नः। तन्वम्। च। प्रजामिति प्रऽजाम्। च। आदित्यैः। इन्द्रः। सह। सीषधाति। सिसधातीति सिसधाति॥४६॥
विषय - स्वर्ग का निर्माण
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार उत्तम शिक्षा द्वारा उत्तम जीवनवाला बनके जब विद्यार्थी समावृत्त होकर संसार में आता है तब वह कहता है कि (नु) = अब [now] (इन्द्र:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (च) = तथा (विश्वेदेवाः) = संसार की सभी दिव्य शक्तियाँ ऐसी कृपा करें कि हम मिलकर (इमा भुवना) = इन लोकों को, जिनमें कि हमारा निवास है, (कं सीषधाम) = सुखमय सिद्ध करें। अपने निवासस्थानभूत लोकों को हम स्वर्गतुल्य बनानेवाले हों। प्रत्येक व्यक्ति अपने घर को स्वर्ग बनाये, प्रत्येक सभ्य समाज को सुन्दर बनाने का ध्यान करे। प्रत्येक नागरिक अपने राष्ट्र को स्वर्ग बनाने का निश्चय करे। २. (इन्द्रः) = सब रोगादि शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (सगणः) = इन सब प्राकृतिक शक्तिरूप देवगणों के साथ - (विश्वेदेवा:) = सब देवों के साथ - विशेषकर (आदित्यैः) = वर्ष में संक्रान्तियों के कारण १२ नामोंवाले आदित्यों के साथ तथा (मरुद्भिः) = ४९ प्रकार की वायु के साथ (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (भेषजा) = रोगनिवारक औषधों को (करत्) = करे, अर्थात् [क] प्रभु स्मरण के द्वारा, [ख] प्राकृतिक शक्तियों के अनुकूल वर्तन से, [ग] सूर्यकिरणों के सम्पर्क में रहने से तथा [घ] अधिक-से-अधिक खुली वायु में विचरने से हम स्वस्थ जीवनवाले बनने का प्रयत्न करें। वस्तुतः लोक को स्वर्ग बनाने के लिए सबसे अधिक यही बात आवश्यक है। स्वर्ग निवासी देव अजर व अमर हैं। वे जीर्णशक्ति व रोगों के शिकार नहीं होते। हम भी प्रस्तुत चारों उपायों का प्रयोग करते हुए स्वस्थ बनें और प्रार्थना करें - (इन्द्रः) = ज्ञान के प्रकाश का सूर्य प्रभु अथवा ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला प्रभु (अदित्यैः सह) = ज्ञान-विज्ञान का आदान करनेवाले सब विद्वानों के साथ, अर्थात् इन विद्वानों द्वारा (नः) = हमारे जीवनों में (यज्ञम् च) = यज्ञरूप उत्तम कर्मों को (तन्वं च) = [तन् विस्तारे] शक्तियों के लिए तथा (प्रजां च) = प्रजा को (सीषधाति) = सिद्ध करें। प्रभुकृपा से हमें उन ज्ञानी विद्वानों का सम्पर्क प्राप्त हो जिनके ज्ञान को सुनकर हम इस संसार में यज्ञों के करने, शक्तियों को विस्तृत करने तथा उत्तम प्रजा के निर्माण में ही लगे रहें। ऐसा होने पर क्या हमारा यह लोक सुखमय न होगा ?
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु व प्राकृतिक शक्तियों की अनुकूलता में चलकर हम अपने लोक को स्वर्ग बनाएँ। प्रभु का उपासन, प्राकृतिक नियमों का पालन, सूर्य सम्पर्क में निवास व शुद्ध वायु के सेवन से हम स्वस्थ बनें। प्रभु के उपासन व ज्ञानी विद्वानों के संग से हममें वह ज्ञान की ज्योति जगे जिससे हमारे कर्म यज्ञात्मक हों, हम अपनी शक्तियों का विस्तार करें तथा उत्तम ज्ञान का निर्माण करनेवाले बनें। अपने लोक को स्वर्ग बनाने का यही मार्ग है।
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