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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - सवंत्सरो देवता छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः
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    ऋ॒तव॑स्ते य॒ज्ञं वित॑न्वन्तु॒ मासा॑ र॒क्षन्तु॑ ते॒ हविः॑। सं॒व॒त्स॒रस्ते॑ य॒ज्ञं द॑धातु नः प्र॒जां च॒ परि॑ पातु नः॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तवः॑। ते॒। य॒ज्ञम्। वि। त॒न्व॒न्तु॒। मासाः॑। र॒क्षन्तु॑। ते॒। हविः॑। सं॒व॒त्स॒रः। ते॒। य॒ज्ञम्। द॒धा॒तु। नः॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। च॒। परि॑। पा॒तु॒। नः॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतवस्ते यज्ञँवितन्वन्तु मासा रक्षन्तु ते हविः । सँवत्सरस्ते यज्ञन्दधातु नः प्रजाञ्च परि पातु नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतवः। ते। यज्ञम्। वि। तन्वन्तु। मासाः। रक्षन्तु। ते। हविः। संवत्सरः। ते। यज्ञम्। दधातु। नः। प्रजामिति प्रऽजाम्। च। परि। पातु। नः॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र की भाँति प्रस्तुत मन्त्र में भी प्रभु भारद्वाज से कहते हैं कि (ऋतवः) = ऋतुएँ (ते यज्ञम्) = तेरे यज्ञ को (वितन्वन्तु) = विस्तृत करनेवाली हों, अर्थात् ऋतुओं के अनुसार तेरे यज्ञ निरन्तर चलते रहें । २. (मासाः) = प्रत्येक मास (ते हविः) = तेरे दानपूर्वक अदन के भाव को (रक्षन्तु) = रक्षित करें, अर्थात् तुझमें कभी भी न देकर सारा खा जाने की वृत्ति उत्पन्न न हो जाए। ३. (संवत्सरः) = वर्ष (ते) = तेरे लिए (नः) = हमारे (यज्ञम्) = यज्ञ को (दधातु) = धारण करे, अर्थात् वर्षभर तेरे द्वारा यज्ञ निरन्तर चलता रहे और वस्तुत: यह यज्ञ ही तेरे उत्तम रक्षण का कारण बने (च) = और निरन्तर चलाया जाता हुआ यह यज्ञ (नः प्रजाम्) = हमारी प्रजा को (परिपातु) = सुरक्षित करे। वस्तुत: यह सम्पूर्ण प्रजा उस प्रभु की ही है, इस प्रजा की रक्षा के लिए यज्ञ ही महान् साधन है। प्रभु ने प्रजाओं को यज्ञ के साथ ही उत्पन्न किया और कहा कि इसी से तुम फूलो- फलोगे, यही तुम्हारी सब इष्टकामनाओं को पूर्ण करेगा।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रत्येक ऋतु में यज्ञशील बनें, सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले हों, सारा वर्ष हमारा यज्ञ अविच्छिन्न चलता रहे और यह यज्ञ प्रजा का परिपालन करनेवाला हो ।

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