यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 16
उ॒च्चा ते॑ जा॒तमन्ध॑सो दि॒वि सद्भूम्याद॑दे। उ॒ग्रꣳशर्म॒ महि॒ श्रवः॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठउ॒च्चा। ते॒। जा॒तम्। अन्ध॑सः। दि॒वि। सत्। भूमि॑। आ। द॒दे॒। उ॒ग्रम्। शर्म॑। महि॑। श्रवः॑ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्रँ शर्म महि श्रवः ॥
स्वर रहित पद पाठ
उच्चा। ते। जातम्। अन्धसः। दिवि। सत्। भूमि। आ। ददे। उग्रम्। शर्म। महि। श्रवः॥१६॥
विषय - सात्त्विक पदार्थों का सेवन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के 'वत्स' से ही प्रभु कहते हैं कि (ते) = तेरा (अन्धसः) = इस आध्यायनीय, सब दृष्टिकोण से ध्यान देने योग्य सोम से (उच्चा जातम्) = उत्कृष्ट विकास हुआ है, क्योंकि इसी की रक्षा से शरीर 'नीरोग' मन 'निर्मल' तथा बुद्धि 'तीव्र' बनती है। २. इस सोम की रक्षा का ही यह परिणाम है कि तू (दिवि) = सदा प्रकाशमयलोक में रहता हुआ (सत्) = उत्कृष्ट (भूमिः) = पार्थिव पदार्थों को ही (आददे) = ग्रहण करता है। तू भोजनों में सात्त्विक भोजनों का ही सेवन करता है। ३. इन सात्त्विक पदार्थों के सेवन से (उग्रम् शर्म) = उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करता है तथा (महिश्रवः) = महनीय कीर्ति व धन को प्राप्त करनेवाला होता है। लौकिक सुखों से ऊपर उठा होने के कारण और उदात्त अपार्थिव सुखों में विचरण करने के कारण ही यह 'अमहीयु' की सन्तान 'आमहीयव' कहलाता है, यह मही- पृथिवी व पार्थिव भोगों को अपने से जोड़ना नहीं चाहता।
भावार्थ - भावार्थ- हम जितना सोम का रक्षण करेंगे उतना ही उत्कृष्ट हमारा विकास होगा. प्रकाशमय जीवन बिताते हुए हम उत्तम सात्त्विक पार्थिव पदार्थों को ग्रहण करेंगे, परिणामत: हमें उदात्त सुख व महनीय कीर्ति व धन प्राप्त होगा।
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