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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 16
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒मा ते॑ वाजिन्नव॒मार्ज॑नानी॒मा श॒फाना॑ सनि॒तुर्नि॒धाना॑।अत्रा॑ ते भ॒द्रा र॑श॒नाऽअ॑पश्यमृ॒तस्य॒ याऽअ॑भि॒रक्ष॑न्ति गो॒पाः॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा। ते॒ वा॒जि॒न्। अ॒व॒मार्ज॑ना॒नीत्य॑व॒ऽमार्ज॑नानि। इ॒मा। श॒फाना॑म्। स॒नि॒तुः। नि॒धानेति॑ नि॒ऽधाना॑। अत्र॑। ते॒। भ॒द्राः। र॒श॒नाः। अ॒प॒श्य॒म्। ऋ॒तस्य॑। याः। अ॒भि॒रक्ष॒न्तीत्य॑भि॒ऽरक्ष॑न्ति। गो॒पाः ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफानाँ सनितुर्निधाना । अत्रा ते भद्रा रशनाऽअपश्यमृतस्य याऽअभिरक्षन्ति गोपाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमा। ते वाजिन्। अवमार्जनानीत्यवऽमार्जनानि। इमा। शफानाम्। सनितुः। निधानेति निऽधाना। अत्र। ते। भद्राः। रशनाः। अपश्यम्। ऋतस्य। याः। अभिरक्षन्तीत्यभिऽरक्षन्ति। गोपाः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 16
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित व्रत मनुष्य को शक्तिशाली बनाते हैं, अतः उस व्रती का सम्बोधन ही 'वाजिन्' शब्द से करते हैं। हे (वाजिन्) = शक्तिशालिन् ! (इमा) = ये व्रत ही (ते) = तेरे अवमार्जनानि पापों का शोधन करनेवाले हो जाते हैं। व्रतों से जीवन पवित्र होता है। २. (इमा) = ये व्रत (सनितुः) = संविभागपूर्वक अन्नादि का सेवन करनेवाले व्रती पुरुष के जीवन में (शफानाम्) =[शम्]=शान्ति के (निधाना) = स्थापित करनेवाले होते हैं। व्रती पुरुष संविभागपूर्वक खाने को अपना महान् व्रत समझता है। यह संविभागपूर्वक खाना ही शान्ति का कारण बनता है। संसार के अन्दर 'परिग्रह'- सब कुछ अपने लिए जुटाने की प्रवृत्ति ही संघर्षों व अशान्तियों का कारण है। ३. (अत्र) = यहाँ इस व्रती जीवन में ही (ते) = तेरी (भद्रा) = कल्याणकर (रशना) = मेखला को (अपश्यम्) = देखता हूँ। रशना वा मेखला शब्द दृढ़ निश्चय के प्रतीक हैं। (या:) = जो मेखलाएँ व दृढ़ निश्चय (ऋतस्य अभिरक्षन्ति) = ऋत का रक्षण करते हैं। दृढ़ निश्चय होने पर मनुष्य ऋत से गिरता नहीं। (गोपाः) = ये निश्चय ही इन्द्रियों का रक्षण करते हैं। विषय इतने सुन्दर व आकर्षक हैं कि ये इन्द्रियों को अपनी ओर आकृष्ट कर ही लेते हैं। बड़ा दृढ़ निश्चय होने पर ही मनुष्य अपने को विषयपङ्क में डूबने से रोक पाता है।

    भावार्थ - भावार्थ- व्रत हमें पवित्र बनाते हैं, ये हमारी शान्ति के निधान हैं। इन व्रतों में किये हुए दृढ़ निश्चय हममें ऋत का रक्षण करते हैं और इन्द्रियों को सुरक्षित करते हैं।

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