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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 12
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽअ॒यम्। अ॒पा रेता॑सि जिन्वति॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। मू॒र्द्धा। दि॒वः। क॒कुत्। पतिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। अ॒पाम्। रेता॑सि। जि॒न्व॒ति॒ ॥१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाँ रेताँसि जिन्वति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। मूर्द्धा। दिवः। ककुत्। पतिः। पृथिव्याः। अयम्। अपाम्। रेतासि। जिन्वति॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र के ‘अध्वर व मन्त्र हमें कैसा बनाएँगे ?’ इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में देखिए— १. ( अग्निः मूर्द्धा ) = यह निरन्तर आगे बढ़नेवाला होता है, अतः उन्नत होते हुए सर्वोच्च स्थान में पहुँचता है। 

    २. ( ककुत् दिवः ) = यह ज्ञान के शिखर पर पहुँचता है। प्रतिदिन मन्त्रों का उच्चारण व दर्शन करनेवाला व्यक्ति ज्ञानी तो बनेगा ही। 

    ३. ( अयम् ) = यह ( पृथिव्याः ) = इस शरीर का ( पतिः ) = स्वामी होता है। यह शरीररूप रथ पूर्णरूप से इसके वश में होता है। इस शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों का ठीक विकास होने से इसका शरीर ‘पृथिवी’ इस अन्वर्थक नामवाला ही होता है [ प्रथ विस्तारे ]।

    ४. यह आगे बढ़ा [ अग्नि ], शिखर तक पहुँचा [ मूर्द्धा ], ज्ञानी बना [ दिवः ककुत् ], सुन्दर शरीरवाला बना [ पतिः पृथिव्या अयम् ]। इन सब बातों का रहस्य इसमें है कि ( अपाम् ) = जल-सम्बन्धी जो ( रेतांसि ) = रेतस् ‘शक्तियाँ’ हैं—वीर्यकण हैं, उनको यह ( जिन्वति ) = अपने अन्दर बढ़ाता [ promote करता ] है। वीर्यकणों का अपने अन्दर वर्धन करता है, अपने शरीर में ही उनकी ऊर्ध्वगति करता है। यह ऊर्ध्वगति ही इनकी वृद्धि है। इनकी रक्षा से ‘अध्वरम्’ की भावना बढ़ती है और मन्त्रों का तत्त्वार्थ दर्शन भी होता है।

    ५. इस प्रकार वीर्य की ऊर्ध्वगति से अत्यन्त तेजस्वी बना हुआ यह ‘वि-रूप’ = विशिष्ट रूपवाला होता है। सामान्य मनुष्यों में यह ऐसे चमकता है जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम आगे बढ़ते हुए उन्नति के शिखर पर पहुँचने का निश्चय करें। ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करें। शरीर को पूर्ण नीरोग रक्खें। इन सब बातों के लिए संयमी बन ऊर्ध्वरेतस् हों।

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