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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अवत्सार ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    अ॒स्य प्र॒त्नामनु॒ द्युत॑ꣳ शु॒क्रं दु॑दुह्रे॒ऽअह्र॑यः। पयः॑ सहस्र॒सामृषि॑म्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य। प्र॒त्नाम्। अनु॑। द्युत॑म्। शु॒क्रम्। दु॒दु॒ह्रे॒। अह्र॑यः। पयः॑। स॒ह॒स्र॒सामिति॑ सहस्र॒ऽसाम्। ऋषि॑म् ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य प्रत्नामनु द्युतँ शुक्रन्दुदुह्रेऽअह्रयः । पयः सहस्रसामृषिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। प्रत्नाम्। अनु। द्युतम्। शुक्रम्। दुदुह्रे। अह्रयः। पयः। सहस्रसामिति सहस्रऽसाम्। ऋषिम्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 16
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    पदार्थ -

    पिछले मन्त्र में प्रभु के धारण का उल्लेख था। उस प्रभु का धारण करनेवाले व्यक्ति प्रभु के धारण के द्वारा उस प्रभु की ज्ञान-ज्योति को भी अपने में धारण करते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि ( अस्य ) = इस हृदय-मन्दिर में स्थापित किये गये प्रभु की ( प्रत्नाम् ) = सनातन ( द्युतम् ) = ज्योति के ( अनु ) = अनुसार ( अह्रयः ) = [ अह व्याप्तौ+क्तिन्, ये सर्वा विद्या व्याप्नुवन्ति—द० ] अपने में सब विद्याओं का व्यापन करनेवाले ज्ञानी लोग ( दुदुह्रे ) = अपने में ज्ञान का दोहन करते हैं। किस ज्ञान का ? जो ज्ञान —

    १. ( शुक्रम् ) = [ शुच् ] मानव जीवन को पवित्र व उज्ज्वल बनानेवाला है नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते 

    २. ( पयः ) = जो हमारा आप्यायन व वर्धन करनेवाला है। इस ज्ञान को प्राप्त करके उसके अनुसार चलते हुए हम अपनी सब शक्तियों का वर्धन करनेवाले बनते हैं। 

    ३. ( सहस्रसाम् ) = [ सहस्र+सन्+संभक्ति आप्ति ] यह ज्ञान हमें शतशः शक्तियों का प्राप्त करानेवाला है। वेदज्ञान हमें विलासमय जीवन से ऊपर उठाकर शक्तिसम्पन्न बनाता है। 

    ४. ( ऋषिम् ) = [ ऋष गतौ ] और अन्ततः यह ज्ञान हमें प्रभु की ओर ले-जाता है—हमें प्रभु को प्राप्त करने के योग्य बनाता है।

    उल्लिखित मन्त्रार्थ में निम्न बातें स्पष्ट हैं— १. यह वेदज्ञान सनातन है। प्रभु अनादि हैं, अतः उनका ज्ञान भी अनादि है। २. अपने में सब विद्याओं का व्यापन करनेवाले इसका दोहन करते हैं। दूसरे शब्दों में यह वेदज्ञान सब सत्य विद्याओं का मूल है। इनमें सब सत्य विद्याओं का बीज निहित है।

    मन्त्रार्थ से यह बात भी स्पष्ट है कि ज्ञान के चार परिणाम हैं— १. पवित्रता, २. सब अङ्गों का आप्यायन, ३. शतशः शक्तियों का लाभ तथा ४. प्रभु-प्राप्ति।

    इस ज्ञान को प्राप्त वही व्यक्ति करता है जो शरीर में अन्न के सारभूत सारे सोमकणों को सुरक्षित रखता है। सार को सुरक्षित रखने से ही यह ‘अवत्सार’ कहलाता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम वेदवाणी का दोहन करके अपने जीवनों को ‘उज्ज्वल, आप्यायित, शक्तिसम्पन्न व प्रभु-प्राप्ति का साधन’ बनाएँ।

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