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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वैश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒ दीदि॑विम्। वर्द्ध॑मान॒ꣳ स्वे दमे॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    राज॑न्तम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्। गो॒पाम्। ऋ॒तस्य॑। दीदि॑विम्। वर्ध॑मानम्। स्वे। दमे॑ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राजन्तमध्वराणाङ्गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानँ स्वे दमे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    राजन्तम्। अध्वराणाम्। गोपाम्। ऋतस्य। दीदिविम्। वर्धमानम्। स्वे। दमे॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 23
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    पदार्थ -

    हम उस प्रभु के समीप प्राप्त होते हैं जो १. ( राजन्तम् ) = [ राजृ दीप्तौ ] संसार के प्रत्येक ‘विभूतिवाले, श्रीवाले या बलवाले’ पदार्थ में दीप्त हो रहे हैं। वस्तुतः उस पदार्थ की ‘विभूति-श्री-दीप्ति’ प्रभु के कारण ही तो श्रीमत् है। उपनिषद् स्पष्ट कह रही है कि तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। 

    २. वे प्रभु ( अध्वराणां गोपाम् ) = सब यज्ञों के रक्षक हैं। हिंसा व कुटिलता से रहित कर्मों के वे पालक हैं। 

    ३. ( ऋतस्य ) = सत्य के ( दीदिविम् ) = प्रकाशक [ दीपयिता ] हैं, वेदवाणी के द्वारा सब सत्य विद्याओं के प्रकाशक हैं। 

    ४. वे प्रभु ( स्वे दमे ) = अपने स्वरूप में ( वर्धमानम् ) = सदा वर्धमान हैं। वे क्षीणता व जीर्णता से रहित हैं। उनका स्वरूप ‘प्रकाशमय’ है—वे ज्ञानस्वरूप हैं। यह ज्ञान सदा पूर्ण रहता है—इसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आती।

    ४. इस प्रकार उपासना करनेवाले मधुच्छन्दा की कामना यह है कि— [ क ] मैं भी प्रभु-ज्योति से देदीप्यमान होऊँ [ ख ] अपने जीवन में यज्ञिय कर्मों की रक्षा करनेवाला बनूँ [ ग ] मुझमें सत्य का प्रकाश हो [ घ ] मेरा ज्ञान सदा बढ़ता रहे।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रभु की उपासना करते हुए प्रभु-जैसे ही बनने का प्रयत्न करें।

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