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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - सुबन्धुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    अग्ने॒ त्वं नो॒ऽअन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः। वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रू॒थ्यः᳖। वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑श्रवा॒ इति॒ वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मत्त॑म॒मिति॑ द्यु॒मत्ऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वन्नोऽअन्तमऽउत त्राता शिवो भवा वरूथ्यः । वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छानक्षि द्युमत्तमँ रयिं दाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। त्वम्। नः। अन्तमः। उत। त्राता। शिवः। भव। वरूथ्यः। वसुः। अग्निः। वसुश्रवा इति वसुऽश्रवाः। अच्छ। नक्षि। द्युमत्तममिति द्युमत्ऽतमम्। रयिम्। दाः॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 25
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र में प्रभु को पिता के रूप में स्मरण किया था। उसी को अब उत्तम बन्धु के रूप में स्मरण करते हैं। प्रभु को इस रूप में स्मरण करने के कारण ही मन्त्र का ऋषि ‘सु-बन्धु’ है = उत्तम बन्धुवाला। हम जैसों को बन्धु बनाते हैं वैसे ही बन जाते हैं, अतः सुबन्धु तो प्रभु के बन्धुत्व में ही रहने का प्रयत्न करता है। 

    २. यह प्रभु का स्तवन इस रूप में करता है— ( अग्ने ) = हे प्रकाशमय प्रभो! अथवा मेरी सम्पूर्ण उन्नतियों के साधक प्रभो! ( त्वम् ) = आप ( नः ) = हमारे ( अन्तमः ) = अन्तिकतम मित्र हैं Intimate friend हैं। अथवा अनिति जीवयति अतिशयेन = आप ही मेरे प्राण हैं—जीवन हैं। 

    २. ( उत ) = और, अन्तिकतम व प्राणप्रद बन्धु के रूप में आप मेरे ( त्राता ) = रक्षक हैं। आपकी कृपा से ही मैं काम-क्रोधादि शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित रहता हूँ। 

    ३. ( शिवः ) = कामादि शत्रुओं से सुरक्षित करके आप मेरा कल्याण करते हैं। 

    ४. आप ( वरूथ्यः भव ) = मेरे लिए उत्तम आवरण होओ, [ वृ = संवरण ]। वस्तुतः आप ही मेरे अमृतरूप उपस्तरण व अपिधान हैं। अथवा वरूथ = Wealth  धन, आप ही हमारे उत्तम धन हैं, हमें उत्तम धन देनेवाले हैं। 

    ५. ( वसुः ) = इस उत्तम धन के द्वारा आप हमें उत्तम निवास देनेवाले हैं ‘वासयतीति वसुः’। 

    ६. ( अग्निः ) = उत्तम निवास देकर हमें आगे ले-चलनेवाले हैं। 

    ७. ( वसुश्रवाः ) = आप निवासक ज्ञान देनेवाले हैं। 

    ८. ( अच्छा नक्षि ) = हे प्रभो! आप हमें आभिमुख्येन प्राप्त होओ [ अच्छ = ओर, नक्ष् गतौ ], और ९. ( द्युमत्तमम् ) = अधिक- से-अधिक ज्योतिवाला ( रयिम् ) = धन ( दाः ) = दीजिए। मुझे धन प्राप्त हो, परन्तु धन पाकर मैं प्रमत्त न हो जाऊँ। धन मेरी ज्योति के वर्धन का कारण बने नकि ह्रास का।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रभु को अपना बन्धु बनाकर वासनाओं को तैर जाएँ और प्रकाशमय धन को प्राप्त होनेवाले हों।

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