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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 27
    ऋषिः - श्रुतबन्धुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    इड॒ऽएह्यदि॑त॒ऽएहि॒ काम्या॒ऽएत॑। मयि॑ वः काम॒धर॑णं भूयात्॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इडे॑। आ। इ॒हि॒। अदि॑ते। आ। इ॒हि॒। काम्याः॑। आ। इ॒त॒। मयि॑ वः॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। भू॒या॒त् ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इडऽएह्यदित एहि काम्या एत । मयि वः कामधरणम्भूयात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इडे। आ। इहि। अदिते। आ। इहि। काम्याः। आ। इत। मयि वः। कामधरणमिति कामऽधरणम्। भूयात्॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र का सुबन्धु ज्ञानी मित्रों के सम्पर्क में रहकर खूब ज्ञानी बनता है। वह वेदवाणी को अपनाता है। इस वेदवाणी के अपनाने से यह ‘श्रुतबन्धु’ = ज्ञानरूप मित्रवाला हो जाता है। यह वेदवाणी से ही कहता है— १. ( इडे ) = हे वेदवाणी! ( एहि ) = तू मुझे प्राप्त हो। तू इडा = A Law [ इ+डा = ला Law ] मेरे जीवन का नियम है। वस्तुतः प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में इसे एक कानून के रूप में ही हमें दिया है। 

    २. ( अदिते ) = हे अखण्डित रहनेवाली वेदवाणी! तू ( एहि ) = मुझे प्राप्त हो। इस वेदवाणी से हमारे स्वास्थ्य आदि अखण्डित रहते हैं। यह वेदवाणी स्वयं भी उस अनादि-अनन्त प्रभु का ज्ञान होने से ‘अखण्डित-अविनश्वर’ है। 

    ३. ( काम्याः ) = इस वेदवाणी की सब ‘ऋचाएँ—यजु व साम’ कामना के योग्य हैं—चाहने योग्य हैं। हे कमनीय वेदवाणियो! ( एत ) = हमें प्राप्त होओ। ( वः ) = आपका ( मयि ) = मुझमें ( कामधरणम् ) =  इच्छापूर्वक धारण ( भूयात् ) = हो। काम्यो हि वेदाधिगमः, इन मनु के शब्दों के अनुसार मैं वेदज्ञान की कामनावाला होऊँ। इसमें निहित ज्ञान को मैं अपना बन्धु बनाऊँ और ‘श्रुतबन्धु’ नामवाला होऊँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — वेदवाणी जीवन का नियम है। यह अखण्डन व स्वास्थ्य को प्राप्त करानेवाली है, चाहने योग्य है। मैं इच्छा से इसका धारण करनेवाला बनूँ।

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