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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 29
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    यो रे॒वान् योऽअ॑मीव॒हा व॑सु॒वित् पु॑ष्टि॒वर्द्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। रे॒वान्। यः। अ॒मी॒व॒हेत्य॑मीऽव॒हा। व॒सु॒विदिति॑ वसु॒ऽवित्। पु॒ष्टि॒वर्द्ध॑न॒ इति॑ पुष्टि॒ऽवर्द्ध॑नः। सः। नः॒। सि॒ष॒क्त्विति सिषक्तुः। यः। तु॒रः ॥२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। रेवान्। यः। अमीवहेत्यमीऽवहा। वसुविदिति वसुऽवित्। पुष्टिवर्द्धन इति पुष्टिऽवर्द्धनः। सः। नः। सिषक्त्विति सिषक्तुः। यः। तुरः॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -

    १. ( नः ) = हमें ( सः ) = वह ( सिषक्तु ) = प्राप्त हो ( यः ) = जो ( रेवान् ) = ज्ञानरूप धनवाला है, ( यः ) = जो ( अमीवहा ) = रोगों को नष्ट करनेवाला है, ( वसुवित् ) = निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला है। ( पुष्टिवर्धनः ) = वस्तुओं को प्राप्त कराके हमारी पुष्टि को बढ़ानेवाला है और ( यः ) = जो ( तुरः ) = शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला—निरालस्य है अथवा काम-क्रोधादि का संहार करनेवाला है। 

    २. इस मन्त्र में गत मन्त्र के ब्रह्मणस्पति = वेदज्ञानी आचार्य की विशेषताओं का उल्लेख है। [ क ] वह ज्ञान का धनी होना चाहिए। कम ज्ञानवाला अध्यापक कभी विद्यार्थी के आदर का पात्र नहीं बन पाता। [ ख ] वह रोगों को नष्ट करनेवाला हो, नीरोग हो। बीमार आचार्य भी विद्यार्थी को प्रभावित नहीं कर पाता। [ ग ] सब वसुओं को स्वयं प्राप्त करनेवाला ही विद्यार्थी को इन वसुओं को प्राप्त करानेवाला होता है। [ घ ] आचार्य विद्यार्थी की पुष्टि का वर्धन करनेवाला हो। [ ङ ] और अन्त में वह क्रियाशील व कामादि शत्रुओं का संहारक हो। 

    ३. ऐसे आचार्य को प्राप्त करके विद्यार्थी निरन्तर मेधा की ओर चलनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘मेधातिथि’ बनता है। इसकी बुद्धि निरन्तर बढ़ती चलती है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — आचार्यों में ये विशेष गुण होने चाहिएँ— वह १. ज्ञानधनी हो, २. नीरोग हो, ३. निवास के लिए सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करानेवाला, ४. पुष्टिवर्धन तथा ५. शीघ्रकारी व कामादि का संहारक हो।

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