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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 30
    ऋषिः - सप्तधृतिर्वारुणिर्ऋषिः देवता - ब्रह्मणस्पतिर्देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
    1

    मा नः॒ शꣳसो॒ऽअर॑रुषो धू॒र्तिः प्रण॒ङ् मर्त्य॑स्य। रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्पते॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। नः॒। शꣳसः॑। अर॑रुषः। धू॒र्तिः। प्रण॑क्। मर्त्य॑स्य। रक्ष॑। नः॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नः शँसो अररुषो धूर्तिः प्र णङ्नर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। शꣳसः। अररुषः। धूर्तिः। प्रणक्। मर्त्यस्य। रक्ष। नः। ब्रह्मणः। पते॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र का मेधातिथि आचार्य से निरन्तर ज्ञान प्राप्त करके अपने धर्म में स्थिर होता है। यह धर्म में स्थिरता से ठहरना ही इसे ‘सत्यधृति’ बना देता है, इसका जीवन उत्तम व निर्दोष होने से यह ‘वारुणि’ कहलाता है। अपने ‘मनः, प्राणेन्द्रिय क्रियाओं’ को सात्त्विक धैर्य से धारण करता है। 

    २. यह ब्रह्मणस्पति = वेदज्ञान के अधिपति प्रभु से प्रार्थना करता है कि— ( ब्रह्मणस्पते ) = हे ज्ञान के पति आचार्य! अथवा परमात्मन् ! ( नः ) = हमें ( अररुषः ) = न देने की वृत्तिवाले कृपण पुरुष की ( शंसः ) = शंसन या बातें ( मा ) = मत ( प्रणङ् ) = नष्ट करनेवाली हो। अथवा इसकी बातें हमें [ नशेर्व्याप्त्यर्थस्य एतद् रूपम्—उव्वट ] व्याप्त करनेवाली न हों। हमारे मनों पर इनकी बातों का प्रभाव न हो जाए। इनकी बातों का स्वरूप यही तो होता है कि ‘व्यक्ति को तो इसलिए नहीं देना कि उसमें पर-पिण्ड जीवन की वृत्ति उत्पन्न हो जाती है, महन्तों का जीवन कितना विलासमय हो जाता है। संस्थाओं में भी रुपये को किस निर्दयता से व्यर्थ व्यय किया जाता है—वहाँ लोग काम कम करते है, रुपये अधिक लेते हैं, रुपयों का ग़बन होता रहता है। सरकार के कार्यों में तो अन्धेर खाता है ही, वहाँ तो करोड़ों का भी कुछ पता नहीं लगता, अतः देने का लाभ कुछ नहीं।’ प्रभु-कृपा से हमें ये बातें ‘अररिवान्’ [ अदाता+कृपण ] न बना दें। 

    ३. और हे आचार्य [ परमात्मन् ]! ऐसी कृपा कीजिए कि ( मर्त्यस्य ) = मरने-मारने के स्वभाववाले, अथवा किसी सांसारिक वस्तु के पीछे मरनेवाले मनुष्य की ( धूर्तिः ) = हिंसा ( नः ) = हमें ( मा ) = मत ( प्रणङ् ) = नष्ट करे या व्याप्त हो। हम इन लोगों से की जानेवाली हिंसाओं का शिकार न हों और इस प्रकार की हिंसाओं के करने की हमारी वृत्ति न बन जाए। 

    ४. हे ( ब्रह्मणस्पते ) = ज्ञान के पते! इस प्रकार अदान व हिंसा की वृत्ति से बचाकर ( नः ) = हमें ( रक्ष ) = इस भवसागर में ही गोते खाते रहने से बचाइए।

    भावार्थ -

    भावार्थ — ज्ञानी आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करके हम अपनी मनोवृत्ति को ऐसा बना लें कि हममें ‘अदान व हिंसा’ की वृत्ति न जाग सके।

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