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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 40
    ऋषिः - आसुरिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    अ॒यम॒ग्निः पु॒री॒ष्यो रयि॒मान् पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः। अग्ने॑ पुरीष्या॒भि द्यु॒म्नम॒भि सह॒ऽआय॑च्छस्व॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। अ॒ग्निः। पु॒री॒ष्यः᳖। र॒यि॒मानिति॑ रयि॒ऽमान्। पु॒ष्टि॒वर्ध॑न॒ इति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑नः। अ॒ग्ने। पु॒री॒ष्य॒। अ॒भि। द्यु॒म्नम्। अ॒भि। सहः॑। आ। य॒च्छ॒स्व॒ ॥४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्निः पुरीष्यो रयिमान्पुष्टिवर्धनः । अग्ने पुरीष्याभि द्युम्नमभि सह आ यच्छस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। अग्निः। पुरीष्यः। रयिमानिति रयिऽमान्। पुष्टिवर्धन इति पुष्टिऽवर्धनः। अग्ने। पुरीष्य। अभि। द्युम्नम्। अभि। सहः। आ। यच्छस्व॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -

    १. ‘आसुरि’ की ही प्रार्थना थोड़े से शब्दों के परिवर्तन के साथ प्रस्तुत मन्त्र में भी है ( अयम् ) = इस संसार के प्रत्येक परिवर्तन में जिसका हाथ दिखता है, वह ( अग्निः ) = सबको उन्नत करनेवाला प्रभु ( पुरीष्यः ) = [ पॄ पालनपूरणयोः ] पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम है। प्रभु ने हमारे पालन के लिए सब आवश्यक पदार्थों को उत्पन्न किया है। ( रयिमान् ) = वे प्रभु रयिवाले हैं, उत्तम धनवाले हैं। जीवन के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराके वे हमारा पालन करते हैं। ( पुष्टिवर्धनः ) = आवश्यक वसुओं व धनों को प्राप्त कराके वे प्रभु हमारी पुष्टि का वर्धन करनेवाले हैं। 

    २. हे ( अग्ने ) = उन्नति के साधक प्रभो! ( पुरीष्य ) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम प्रभो! आप हमें ( द्युम्नम् अभि ) = ज्ञान-ज्योति की ओर और ( सहः अभि ) = बल की ओर ( आयच्छस्व ) = सम्पूर्ण उद्यमवाला कीजिए।

    ३. वास्तविक पोषण तभी होता है जब हम ज्ञान और बल का सम्पादन करते हैं। ज्ञान और बल का सम्पादन करनेवाला यह वस्तुतः ‘आसुरि’ है, अपने जीवन का ठीक पोषण करनेवाला है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — वह सबका पालक प्रभु हमें ज्ञान और बल की ओर ले-चले।

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