Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 45
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - स्वराट् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    1

    यद् ग्रामे॒ यदर॑ण्ये॒ यत् स॒भायां॒ यदि॑न्द्रि॒ये। यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यमि॒दं तदव॑यजामहे॒ स्वाहा॑॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ग्रामे॑। यत्। अर॑ण्ये। यत्। स॒भाया॑म्। यत्। इन्द्रि॒ये। यत्। एनः॑। च॒कृ॒म। व॒यम्। इ॒दम्। तत्। अव॑। य॒जा॒म॒हे॒। स्वाहा॑ ॥४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्ग्रामे यदरण्ये यत्सभायाँ यदिन्द्रिये । यदेनश्चकृमा वयमिदन्तदव यजामहे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ग्रामे। यत्। अरण्ये। यत्। सभायाम्। यत्। इन्द्रिये। यत्। एनः। चकृम। वयम्। इदम्। तत्। अव। यजामहे। स्वाहा।४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    प्रजापति प्रार्थना करता है कि— १. ( यत् ) = जो ( एनः ) = पाप ( ग्रामे ) = ग्राम के विषय में ( वयम् ) = हम ( चकृम ) = कर बैठे हैं ( इदम् ) = इस ( तत् एनः ) = उस पाप को ( अवयजामहे ) = यज्ञों के द्वारा दूर करते हैं। ग्राम में निवास करनेवाले को उत्तम नागरिक बनना चाहिए। उसे कभी उत्तम नागरिक के कर्त्तव्यों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ‘मार्गों को मलिन करना, मार्गों पर चलने आदि के नियमों का पालन न करना, पड़ोसियों के आराम आदि का ध्यान न करके शोर करते रहना, शराब आदि के नशे में उपद्रवादि करना’—ये सब ग्रामविषयक पाप हैं। हमें इनसे बचने का यत्न करना चाहिए। ऋषियों के समय-समय पर आते रहने से हममें यज्ञिय भावना जागरित रहेगी और हम ऐसे पाप न करेंगे। 

    २. ( यत् अरण्ये ) = जो पाप हम वन के विषय में करते हैं, उसे भी यज्ञ से दूर करते हैं। ‘वृक्षों को काटते रहना और नयों का न लगाना, निषिद्ध प्राणियों का शिकार करना अथवा वनों में वर्त्तमान आश्रमों को उजाड़ना’ ये सब अरण्यविषयक पाप हैं। इनसे भी हम बचें। 

    ३. ( यत् सभायाम् ) = जो पाप हम सभा में करते हैं, उसका भी हम अवयजन [ दूर ] करनेवाले हों। ‘सभा की शान्ति को भङ्ग करना, वहाँ उपदेश न सुन ऊँघते रहना, परस्पर बातें करना, शिष्ट रीति से न बैठना’ आदि सभा-विषयक पाप हैं। इन्हें भी हमें दूर करना है। 

    ४. ( यत् इन्द्रिये ) = जो इन्द्रियों के विषय में हमसे पाप हुए हैं उसे भी हम यज्ञ से दूर करते हैं। अतिभोजन, अशुभ दर्शन, निन्दाश्रवण, निन्दाकथन व असंयम आदि इन्द्रियों के दोषों को भी हम यज्ञ से दूर करनेवाले हों। 

    ५. ( स्वाहा ) = [ स्वं प्रति आह ] यही बात हमें सदा अपने से कहते रहना चाहिए। निरन्तर इस प्रकार आत्मप्रेरणा देने से हमारा जीवन इन सब पापों से ऊपर उठेगा, वह पवित्र होगा और हम पवित्र सन्तानों के निर्माण करनेवाले ‘प्रजापति’ बन पाएँगे।

    भावार्थ -

    भावार्थ — यज्ञादि से हमारी पापवृत्तियाँ दूर होती जाएँ। हम ग्राम, अरण्य, सभा व इन्द्रियविषयक सब पापों से ऊपर उठें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top