यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 52
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - विराट् पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
2
सु॒स॒न्दृशं॑ त्वा व॒यं मघ॑वन् वन्दिषी॒महि॑। प्र नू॒नं पू॒र्णब॑न्धुर स्तु॒तो या॑सि॒ वशाँ॒२ऽअनु॒ योजा॒ न्विन्द्र ते॒ हरी॑॥५२॥
स्वर सहित पद पाठसु॒सं॒दृश॒मिति॑ सुऽसं॒दृश॑म्। त्वा॒। व॒यम्। मघ॑व॒न्निति॒ मघ॑ऽवन्। व॒न्दि॒षी॒महि॑। प्र। नू॒नम्। पू॒र्णब॑न्धुर॒ इति॑ पू॒र्णऽब॑न्धुरः। स्तु॒तः। या॒सि॒। वशा॑न्। अनु॑। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ऽइति॒ हरी॑ ॥५२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुसन्दृशं त्वा वयम्मघवन्वन्दिषीमहि । प्र नूनम्पूर्णबन्धुर स्तुतो यासि वशाँ अनु योजा न्विन्द्र ते हरी ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुसंदृशमिति सुऽसंदृशम्। त्वा। वयम्। मघवन्निति मघऽवन्। वन्दिषीमहि। प्र। नूनम्। पूर्णबन्धुर इति पूर्णऽबन्धुरः। स्तुतः। यासि। वशान्। अनु। योज। नु। इन्द्र। ते। हरीऽइति हरी॥५२॥
विषय - गोतम का प्रभुस्तवन
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र के शब्दों के अनुसार जब गोतम प्रभु का स्तवन करता है तब कहता है कि हे ( मघवन् ) = [ मघ = मख ] इस सृष्टिरूप यज्ञ के रचनेवाले प्रभो! ( सुसन्दृशम् ) = अत्यन्त सुन्दर दर्शनवाले ( त्वा ) = आपकी ( वयम् ) = हम ( वन्दिषीमहि ) = वन्दना करते हैं। प्रभु इस सृष्टि के रचयिता तो हैं ही, यह सृष्टि इस यज्ञरूप प्रभु का एक यज्ञ भी है। प्रभु ने इसे प्रकृति से बनाया और जीव की उन्नति के लिए बनाया, परन्तु जब हम उस प्रभु को प्रकृति व जीव से अलग सोचने का प्रयत्न करते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि वे अत्यन्त सुन्दर हैं, ‘सुसन्दृश’ हैं। प्रभु का दर्शन अत्यन्त रमणीय है, आसेचनक है, वहाँ पहुँचकर मन ऊबता नहीं।
२. हे ( पूर्णबन्धुर ) = पूर्ण है लोक-लोकान्तरों का बन्धन जिसका ऐसे प्रभो! आप ( स्तुतः ) = स्तुति किये जाने पर ( वशान् अनुयासि ) = अपने मन को वश में करनेवालों को अनुकूलता से प्राप्त होते हैं। जितना-जितना हम अपने मन को वश में करते हैं, उतना- उतना हम आपको प्राप्त करने के पात्र बनते जाते हैं। आप पूर्णबन्धुर है। वृष्टि की क्रिया में ही किस प्रकार तीनों लोक परस्पर सम्बद्ध हैं। द्युलोक के सूर्य से पृथिवीलोक का जल वाष्पीभूत होता है और उन वाष्पों से अन्तरिक्षलोक में मेघों का निर्माण होता है।
३. इस पूर्णबन्धुर प्रभु से गोतम कहता है कि हे ( इन्द्र ) = मेरी इन्द्रियों के अधिष्ठाता प्रभो! आप इन ( ते हरी ) = अपने इन्द्रियरूप घोड़ों को ( योज नु ) = निश्चय से ज्ञानयज्ञों में जोते रखिए। ये मेरी इन्द्रियाँ कर्मों में लगी रहेंगी तभी तो ‘पवित्र’ बनी रहेंगी।
भावार्थ -
भावार्थ — हम अपने में अत्यन्त सुन्दर प्रभु की स्तुति करते हैं। वे प्रभु पूर्णबन्धुर हैं। इस सृष्टि के लोकों को परस्पर बाँधनेवाले हैं, वे स्तोता को ही प्राप्त होते हैं।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal