यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 7
ऋषिः - सर्पराज्ञी कद्रूर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
3
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒नास्य प्रा॒णाद॑पान॒ती। व्य॑ख्यन् महि॒षो दिव॑म्॥७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरित्य॒न्तः। च॒र॒ति॒। रो॒च॒ना। अ॒स्य॒। प्रा॒णात्। अ॒पा॒न॒तीत्य॑पऽअ॒न॒ती। वि। अ॒ख्य॒न्। म॒हि॒षः। दिव॑म् ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्तरित्यन्तः। चरति। रोचना। अस्य। प्राणात्। अपानतीत्यपऽअनती। वि। अख्यन्। महिषः। दिवम्॥७॥
विषय - ज्ञान का प्रकाश
पदार्थ -
१. गत मन्त्र की भावना के अनुसार वेदमाता को अपनाने पर ( अस्य ) = इस ‘वेदमातृभक्त’ के ( अन्तः ) = अन्दर—अन्तःकरण में ( रोचना ) = ज्ञान की दीप्ति ( चरति ) = प्रसृत होती है, अर्थात् इसका अन्तःकरण ज्ञानज्योति से जगमगा उठता है।
२. यह ( रोचना ) = ज्ञानदीप्ति विषयों के सात्त्विक रूप का दर्शन कराकर इसे विषयासक्ति से बचाती है। विषयासक्तियों से बचाव इसकी प्राणशक्ति की वृद्धि का कारण बनता है। ( प्राणात् ) = प्राणशक्ति के द्वारा यह रोचना इसके जीवन में से ( अपानती ) = सब दोषों को दूर करती है। इसका जीवन निर्मल हो उठता है। केवल शरीर ही नहीं, इसके मन व मस्तिष्क भी स्वस्थ हो जाते हैं।
३. सब मलों से दूर हुआ यह ( महिषः ) = [ मह पूजायाम् ] प्रभु का पुजारी दिवम् = उस हृदयस्थ देदीप्यमान ज्योति को ( व्यख्यन् ) = विशेषरूप से देखता है। मल के आवरण ने उस ज्योति को इससे छिपाया हुआ था। आवरण हटा और ज्योति का प्रकाश हुआ।
भावार्थ -
भावार्थ — हम वेदमाता को अपनाते हैं, तो अन्तःकरण प्रकाशित हो उठता है। प्राणशक्ति की वृद्धि से सब मल दूर हो जाते हैं और उपासक अन्तर्ज्योति—प्रभु को देखता है।
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