यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 8
ऋषिः - सर्पराज्ञी कद्रूर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - गायत्री,
स्वरः - षड्जः
1
त्रि॒ꣳश॒द्धाम॒ विरा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते। प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑॥८॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ꣳशत्। धाम॑। वि। रा॒ज॒ति॒। वाक्। प॒त॒ङ्गाय॑। धी॒य॒ते॒। प्रति॑। वस्तोः॑। अह॑। द्युभि॒रिति॒ द्युऽभिः॑ ॥८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिँशद्धाम विराजति वाक्पतङ्गाय धीयते । प्रति वस्तोरह द्युभिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रिꣳशत्। धाम। वि। राजति। वाक्। पतङ्गाय। धीयते। प्रति। वस्तोः। अह। द्युभिरिति द्युऽभिः॥८॥
विषय - निरन्तर ‘जप’
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार जब यह उपासक उस प्रभु का दर्शन करता है तब ( त्रिंशत् धाम ) = तीसों मुहूर्त ( विराजति ) = इसका अन्तःकरण प्रभु-ज्योति से चमकता है। इसका हृदय सदा प्रकाशमय रहता है।
२. ( वाक् ) = इसकी वाणी ( पतङ्गाय ) = उस [ पतति गच्छति प्राप्नोति ] प्राप्त होनेवाले प्रभु के लिए ( धीयते ) = धारण की जाती है। यह निरन्तर उस प्रभु सूर्य-समप्रभ का ही जप करता है, उसके नाम का ही चिन्तन करता है। सदा प्रभु का स्मरण करने से इसका जीवन पवित्र बना रहता है।
३. ( प्रतिवस्तोः ) = प्रतिदिन इसका जप चलता ही है [ वस्तोः = दिन ], ( अह ) = और निश्चय से ( द्युभिः ) = [ द्यु = दिन ] अधिक प्रकाश व खुशी—प्रसन्नता के दिनों में भी यह प्रभु-नाम-स्मरण करता है। उत्सव के दिनों में यह प्रभु-स्मरण हमारी प्रसन्नता को उच्छृङ्खल नहीं होने देता। प्रसन्नता में भी मर्यादा बनी रहती है।
भावार्थ -
भावार्थ — तीसों मुहूर्त प्रभु का दर्शन चले, निरन्तर उसके नाम का स्मरण हो। प्रसन्नता के अवसरों पर हम विशेषतः प्रभु को न भूलें, इसी में जीवन की सार्थकता है।
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