यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 1
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात्।स भूमि॑ꣳ स॒र्वत॑ स्पृ॒त्वाऽत्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम्॥१॥
स्वर सहित पद पाठसहस्र॑शी॒र्षेति॑ स॒हस्र॑ऽशीर्षा। पुरु॑षः। स॒ह॒स्रा॒क्ष इति॑ सहस्रऽअ॒क्षः। सहस्र॑पा॒दिति॑ स॒हस्र॑ऽपात् ॥ सः। भूमि॑म्। स॒र्वतः॑ स्पृ॒त्वा। अति॑। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। द॒शा॒ङ्गु॒लमिति॑ दशऽअङ्गु॒लम् ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिँ सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥
स्वर रहित पद पाठ
सहस्रशीर्षेति सहस्रऽशीर्षा। पुरुषः। सहस्राक्ष इति सहस्रऽअक्षः। सहस्रपादिति सहस्रऽपात्॥ सः। भूमिम्। सर्वतः स्पृत्वा। अति। अतिष्ठत्। दशाङ्गुलमिति दशऽअङ्गुलम्॥१॥
विषय - सहस्त्रशीर्षा पुरुष
पदार्थ -
१. वह पुरुष है [क] 'पुरि वसति' इति पुरुष:=ब्रह्माण्डरूप नगरी में निवास करते हैं [ख] पुरि शेते - ब्रह्माण्डरूप नगरी में शयन करते हैं अथवा [ग] (पुनाति रुणद्धि स्यति) = इसे पवित्र करते हैं, आवृत किये हुए हैं और अन्त में इसका अन्त करते हैं [षोऽन्तकर्मणि] । योग के शब्दों में ‘क्लेश, कर्म, विपाकाशय' से अपरामृष्ट पुरुषविशेष ही ईश्वर हैं। (सहस्रशीर्षा) = अनन्त सिरोंवाले हैं। (सहस्राक्षः) = अनन्त २. (पुरुष का स्वरूप) - वे पुरुष आँखोंवाले हैं, (सहस्त्रपात्) = अनन्त पाँववाले हैं। सहस्र शब्द अनन्तवाची है। यही भावना ('विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्') = इन शब्दों में भी कही गई कि उस प्रभु की सर्वत्र आँखें हैं, सर्वत्र मुख, बाहु व पाँव हैं। जैसे भौतिक सङ्ग से रहित मुक्तात्मा 'पश्यँश्चक्षुर्भवति' देखता है तो आँख - ही आँख हो जाता है, उसे कोई भौतिक आवरण भेदनेवाला नहीं होता, इसी प्रकार उस प्रभु का भी कोई भौतिक आवरण नहीं है, वे सर्वतः आँखों व श्रोत्रोंवाले हैं। ३. (सः) = वह पुरुष (भूमिम्) = [ भवन्ति भूतानि यस्मिन्] इस सारे ब्रह्माण्ड को चारों ओर से (स्पृत्वा) = [ स्पृ = to protect ] आवृत करके रक्षा करते हुए तथा इसके अन्दर निवास [ स्पृ= to live ] करते हैं। ४. (दशांगुलम्) = [क] इस प्रकार वह पुरुष इस ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हुए तथा इसमें निवास करते हुए दस अंगुल परिमाणवाले इस ब्रह्माण्ड को (अत्यतिष्ठत्) = लाँघकर ठहर रहे हैं, अर्थात् इस ब्रह्माण्ड से परे भी वर्त्तमान हैं, यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एकदेश में है। जैसे मातृगर्भ में बालक की स्थिति है, उसी प्रकार प्रभु के गर्भ में ब्रह्माण्ड की स्थिति है, वे प्रभु 'हिरण्यगर्भ' हैं, ये सारे ज्योतिर्मय पिण्ड उनके गर्भ में हैं। प्रभु की तुलना में यह ब्रह्माण्ड दशांगुलमात्र ही तो है, चाहे हमारे गणित के परिमाण में यह ब्रह्माण्ड अनन्त - सा प्रतीत होता है, परन्तु उस अनन्त प्रभु की तुलना में तो यह एकदम सान्त है। उसके यह एकदेश में ही है। [ख] 'दशांगुलम्' शब्द का अर्थ तरबूज़ 'watermelon ' भी है, उस प्रभु की तुलना में यह सारा संसार 'तरबूज' ही है । 'तरबूज़' का अर्थ यहाँ इसलिए संगत प्रतीत होता है कि इससे ब्रह्माण्ड की अण्डाकृति का कुछ बोध भी हो जाता है, और साथ ही ऊपर ठोस और अन्दर कुछ जल की प्रतीति भी हो जाती है। [ग] (दशांगुलम्) = शब्द हृदयदेश के लिए भी प्रयुक्त होता है, वे प्रभु सबके हृदयों में निवास करते हुए उन सब हृदयों से ऊपर उठे हुए हैं। [घ] पञ्चस्थूलभूत व पञ्चसूक्ष्मभूतमय होने से भी इस ब्रह्माण्ड को 'दशांगुल' कहा जाता है। वे प्रभु इस भौतिक ब्रह्माण्ड को लाँघकर रह रहे हैं। इस सर्वव्यापक प्रभु को अनुभव करनेवाला व्यक्ति भी उस 'नारायण' को अपने अन्दर अनुभव करता है और अपने को उस नारायण में। इस प्रकार यह स्वयं भी तन्मय होकर 'नारायण' ही हो जाता है।
भावार्थ - भावार्थ - १. वे प्रभु अनन्त सिरों, आँखों व पाँवोंवाले हैं । २. इस ब्रह्माण्ड को आवृत करके इसकी रक्षा कर रहे हैं और इसके अन्दर निवास कर रहे हैं । ३. वे प्रभु इस दशांगुल जगत् से परे भी हैं।
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