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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    यजा॑ नो मि॒त्रावरु॑णा॒ यजा॑ दे॒वाँ२ऽऋ॒तं बृ॒हत्।अग्ने॒ यक्षि॒ स्वं दम॑म्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यज॑। नः॒। मि॒त्रावरु॑णा। यज॑। दे॒वान्। ऋ॒तम्। बृ॒हत् ॥ अग्ने॑। यक्षि॑। स्वम्। दम॑म् ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाँऽऋतम्बृहत् । अग्ने यक्षि स्वन्दमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज। नः। मित्रावरुणा। यज। देवान्। ऋतम्। बृहत्॥ अग्ने। यक्षि। स्वम्। दमम्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित 'अग्नि' बनने के लिए हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हैं (अग्ने) = आगे ले चलनेवाले प्रभो! आप अग्नि हैं, आपके सम्पर्क से हम भी अग्नि बन पाएँगे। आप (नः) = हमारे साथ (मित्रावरुणा) = प्राण और अपान का (यज) = मेल कीजिए [यज= सङ्गतिकरण] । रोगों से [मि] बचाने के कारण [त्र] प्राण ही 'मित्र' है और रोगों का निवारण [वरुण] करने से अपान 'वरुण' है। इस प्राणापान की शक्ति से सङ्गत होकर हम नीरोग बनेंगे। स्वस्थ शरीर से हम अपनी जीवन यात्रा को सफलता से सिद्ध कर पाएँगे। २. हे अग्ने ! आप हमें प्राणापान के द्वारा स्वस्थ बनाकर (देवान्) = दिव्य गुणों को (यज) = प्राप्त कराइए। आपकी कृपा से जहाँ हमारा शरीर स्वस्थ हो वहाँ हमारा मन भी पूर्णरूप से स्वस्थ हो। इस मन से राग-द्वेष-मोहरूप मल नष्ट हो जाएँ और उसमें दिव्य गुणों का विकास हो । ('येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथः') = देव न परस्पर विरुद्ध गति करते हैं, न ही परस्पर द्वेष करते हैं। हम भी द्वेष से ऊपर उठकर देव बनें। ३. हे प्रभो ! (ऋतम्) = ऋत को (यज) = हमारे साथ सङ्गत कीजिए । (ऋत) = right = ठीक-ठीक वह है जो ठीक स्थान पर हो और ठीक समय पर हो। प्रभो! हम आपके अनुग्रह से सब कार्यों को ठीक समय पर व ठीक स्थान पर करनेवाले हों, क्योंकि यह ऋत ही (बृहत्) = [ बृहि वृद्धौ] हमारी वृद्धि का कारण बनेगा। ४. हे (अग्ने) = आगे ले चलनेवाले प्रभो! आप (स्वं दमम्) = आत्म- दमन को (यक्षि) = हमारे साथ सङ्गत कीजिए। हम अपना दमन करना सीखें। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'गोतम' अपनी इन्द्रियों को प्रशस्त बनाने के लिए चार प्रार्थनाएँ करता है- १. मुझे प्राणापान २. दिव्य गुण ३. वृद्धि का कारणभूत ऋत व ४. आत्मदमन की शक्ति प्राप्त हो ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु के स्वागत की तैयारी का स्वरूप यही है कि हम १. स्वास्थ्य के द्वारा शरीर को रोगरूप मलों से दूर करते हैं २. दिव्य गुणों के द्वारा द्वेषरूप मानसमल को दूर करते हैं ३. ऋत के द्वारा उन्नति के विघ्नों को समाप्त करते हैं और ४. आत्मदमन से अपने सब मलों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

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