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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 25
    ऋषिः - आङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
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    हिर॑ण्यपाणिः सवि॒ता विच॑र्षणिरु॒भे द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒न्तरी॑यते।अपामी॑वां॒ बाध॑ते॒ वेति॒ सूर्य्य॑म॒भि कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ द्यामृ॑णोति॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः। स॒वि॒ता। विच॑र्षणि॒रिति॒ विऽच॑र्षणिः। उ॒भेऽइ॒त्यु॒भे। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तः। ई॒य॒ते॒ ॥ अप॑। अमी॑वाम्। बाध॑ते। वेति। सूर्य्य॑म्। अ॒भि। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। द्याम्। ऋ॒णो॒ति॒ ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवीऽअन्तरीयते । अपामीवाम्बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यपाणिरिति हिरण्यऽपाणिः। सविता। विचर्षणिरिति विऽचर्षणिः। उभेऽइत्युभे। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। अन्तः। ईयते॥ अप। अमीवाम्। बाधते। वेति। सूर्य्यम्। अभि। कृष्णेन। रजसा। द्याम्। ऋणोति॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 25
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    पदार्थ -
    १. (हिरण्यपाणि:) = स्वर्ण है हाथ में जिसके, ऐसा सविता = सबका प्रेरक (विचर्षणि:) = विश्वद्रष्टा [ सर्वप्रकाशक] सूर्य (उभे द्यावापृथिवी अन्त:) = इन दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में (ईयते) = गति करता है। सूर्य की किरणें ही सूर्य के हाथ हैं। इन किरणरूप हाथों में सूर्य हिरण्य = स्वर्ण को लेकर आता है, जिस प्रकार एक वैद्य क्षय पीड़ित को स्वर्ण के इंजैक्शन देता है, उसी प्रकार यह सूर्य अपनी किरणों से स्वर्ण को शरीर में प्रविष्ट करता प्रतीत होता है। यह सबको कर्म में प्रवृत्त करने से 'सविता' है। सबको प्रकाशित करने से 'विचर्षणि' है। २. उदय होता हुआ सूर्य जब इन किरणरूप हाथों से स्वर्ण के इंजैक्शन लगाता है तब (अमीवाम्) = रोगकृमियों को अपबाधते सुदूर नष्ट कर देता है। ('उद्यन् आदित्यः क्रिमीन् हन्ति निम्लोचन् हन्तु रश्मिभिः') = [अथर्व ० ] उदय और अस्त होता हुआ सूर्य किरणों से कृमियों का संहार करता है। ३. (सूर्यम्) = ज्योति तथा वर्च को [सूर्यो ज्योति:, सूर्यो वर्चः] (वेति) = [वी = प्रजनन] उत्पन्न करता है। सूर्य किरणों के सम्पर्क में आने से मस्तिष्क में ज्योति का उदय होता है तो शरीर वर्चस्वी बनता है। ४. यह सविता देव (कृष्णेन) = अन्धकार के निवर्तक रजसा तेज से (द्याम्) = द्युलोक को (अभिऋणोति) = समन्तात् व्याप्त करता है, अथवा (अभिकृष्णेन) = अपनी ओर आकृष्ट (रजसा) = लोकसमूह के साथ (द्याम् ऋणोति) = द्युलोक में गति करता है। सूर्य अपने आकृष्ट लोकसमूह के साथ आकाश में आगे और आगे चल रहा है।

    भावार्थ - भावार्थ- सूर्य की किरणें स्वर्णमय हैं, उनके सेवन से सब रोग दूर होते हैं। ज्योति व वर्चस् की उत्पत्ति के लिए सूर्यकिरणों के सम्पर्क में रहना आवश्यक है।

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