यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 18
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - वाग्विद्युतौ देवते
छन्दः - स्वराट् आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
2
तस्या॑स्ते स॒त्यस॑वसः प्रस॒वे त॒न्वो य॒न्त्रम॑शीय॒ स्वाहा॑। शु॒क्रम॑सि च॒न्द्रम॑स्य॒मृत॑मसि वैश्वदे॒वम॑सि॥१८॥
स्वर सहित पद पाठतस्याः॑। ते॒। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽस॑वसः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। त॒न्वः᳖। य॒न्त्रम्। अ॒शी॒य॒। स्वाहा॑। शु॒क्रम्। अ॒सि॒। च॒न्द्रम्। अ॒सि॒। अ॒मृत॑म्। अ॒सि॒। वै॒श्व॒दे॒वमिति॑ वैश्वऽदे॒वम्। अ॒सि॒ ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यास्ते सत्यसवसः प्रसवे तन्वो यन्त्रमशीय स्वाहा । शुक्रमसि चन्द्रमस्यमृतमसि वैश्वदेवमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
तस्याः। ते। सत्यसवस इति सत्यऽसवसः। प्रसव इति प्रऽसवे। तन्वः। यन्त्रम्। अशीय। स्वाहा। शुक्रम्। असि। चन्द्रम्। असि। अमृतम्। असि। वैश्वदेवमिति वैश्वऽदेवम्। असि॥१८॥
विषय - शरीर-नियन्त्रण
पदार्थ -
१. ‘वत्स’ गत मन्त्र में वर्णित प्रभु-प्रेरणा को सुनता है और कहता है कि ( सत्यसवसः ) = सत्य-प्रेरणा देनेवाले ( ते ) = तेरी ( तस्याः ) = उस वेदवाणी की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ( तन्वः ) = शरीर के ( यन्त्रम् ) = नियन्त्रण को ( अशीय ) = मैं प्राप्त करूँ। ( स्वाहा ) = वस्तुतः यह कितनी सुन्दर बात कही गई है। हम वेदवाणी के आदेश के अनुसार चलें और अपने इस शरीर को पूर्णतया अपने वश में रक्खें। हमारी प्रत्येक क्रिया नियन्त्रित व नपी-तुली हो। हमारा खाना-पीना, सोना-जागना सभी नियमबद्ध हो।
२. वत्स की इस प्रार्थना पर प्रभु कहते हैं कि ऐसा करने पर—वेदवाणी के अनुकूल नियन्त्रित जीवन बिताने पर [ क ] ( शुक्रमसि ) = तू ‘शुक्र’ होता है—दीप्त ज्ञानवाला [ शुच दीप्तौ ], शुचि मनवाला व क्रियाशील जीवनवाला [ शुक् गतौ ] होता है, [ ख ] इस प्रकार का जीवन बनाकर तू इस सुख-दुःखादि द्वन्द्वात्मक संसार में सदा ( चन्द्रम् असि ) [ चदि आह्लादे ] = आह्लादमय जीवन बितानेवाला होता है। तू दुःखों व विघ्नों से खिझ नहीं उठता। [ ग ] सदा प्रसन्न मनोवृत्तिवाला होकर ( अमृतम् असि ) = असमय में रोगों से मरता नहीं। [ घ ] दीर्घजीवनवाला बनकर तू ( वैश्वदेवम् असि ) = सब दिव्य गुणों को लिये हुए हितकर जीवनवाला होता है। तेरा जीवन सब दिव्य गुणों से परिपूर्ण होता है। ब्रह्मचारी को यदि ‘शुक्र’—वीर्यवान् बनना है तो गृहस्थ को ‘चन्द्र’ सदा आह्लादमय रहने का प्रयत्न करना है। वानप्रस्थ ने किन्हीं भी विषयों के पीछे न मरनेवाला ‘अमृत’ बनना है और संन्यासी ने सब दिव्य गुणोंवाला ‘वैश्वदेव’ बन जाना है। वैश्वदेव बनकर ही यह महादेव को प्राप्त करेगा।
भावार्थ -
भावार्थ — मनुष्य वेदवाणी के अनुसार अपने शरीर का नियन्त्रण करे। वह ज्ञानवान्, सदा प्रसन्न, रोगों से अनाक्रान्त और दिव्य गुणोंवाला बने।
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