यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - प्राणो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - पञ्चमः
1
वा॒चस्पत॑ये पवस्व॒ वृष्णो॑ऽअ॒ꣳशुभ्यां॒ गभ॑स्तिपूतः। दे॒वो दे॒वेभ्यः॑ पवस्व॒ येषां॑ भा॒गोऽसि॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठवा॒चः। पत॑ये। प॒व॒स्व॒। वृष्णः॑। अ॒ꣳशुभ्या॒मित्य॒ꣳशुऽभ्या॑म्। गभ॑स्तिपूत॒ इति॒ गभ॑स्तिऽपूतः॒। दे॒वः। दे॒वेभ्यः॑। प॒व॒स्व॒। येषा॑म्। भा॒गः। असि॑ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचस्पतये पवव वृष्णो अँशुभ्याङ्गभस्तिपूतः । देवो देवेभ्यः पवस्व येषां भागो सि ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाचः। पतये। पवस्व। वृष्णः। अꣳशुभ्यामित्यꣳशुऽभ्याम्। गभस्तिपूत इति गभस्तिऽपूतः। देवः। देवेभ्यः। पवस्व। येषाम्। भागः। असि॥१॥
विषय - पवित्रता
पदार्थ -
१. पिछले अध्याय की समाप्ति इन शब्दों पर हुई थी कि ‘वे प्रभु जीव को उत्कृष्ट ज्ञान देते हैं—उत्कृष्ट शंसन करते हैं’, अतः प्रस्तुत अध्याय का प्रारम्भ इस प्रकार करते हैं कि ( वाचस्पतये ) = वाणी के पति प्रभु के लिए, उसको हृदयासीन करने के लिए ( पवस्व ) = तू अपने जीवन को पवित्र बना। प्रभु को अपने हृदय में आसीन करने का प्रकार यही है कि हम अपने हृदय को निर्मल और निर्मलतर बनाते चलें।
२. ‘हृदय को निर्मल कैसे बनाएँ?’ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ( वृष्णः ) = सब सुखों की वर्षा करनेवाले सोम की ( अंशुभ्याम् ) = [ अंश to divide ] भेदक शक्तियों से। शरीर में उत्पन्न होनेवाली वीर्यशक्ति ‘सोम’ है। इस सोम के अन्दर शरीर के रोगों व बुद्धि की मन्दता को दूर करने की क्षमता है। वही इसकी भेदक शक्ति है। इस सोम की भेदक शक्तियों से हमारा जीवन पवित्र हो जाता है और हम प्रभु के निवास के योग्य बनते हैं।
३. ( गभस्तिपूतः ) = ज्ञान की रश्मियों से पवित्र हुआ-हुआ ( देवः ) = प्रभु का स्तोता बनकर [ दिव्+स्तुति ] ( देवेभ्यः ) = देवों के लिए तू ( पवस्व ) = अपने को पवित्र कर ले, अर्थात् ज्ञान+भक्ति से पवित्र हुआ तू देवों का निवासस्थान बन, ( येषाम् ) = जिन देवों का तू ( भागः ) = सेवनीय ( असि ) = है। सारे देव तुझमें आकर निवास करते हैं। तू ज्ञान व भक्ति से अपने कर्मों को पवित्र कर डाल, जिससे तू देवों का सेवनीय स्थान बना रहे।
४. मन्त्र का ऋषि गोतम है। यह अपने जीवन को पवित्र करके देवों को अपनाता है। देवों का निवास-स्थान बनकर यह प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनता है। ‘वाचस्पति’ प्रभु की प्राप्ति से इसे भी ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त होती हैं और यह मन्त्र का ऋषि ‘गोतम’ = अत्यन्त प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाला बनता है।
भावार्थ -
भावार्थ — अपने जीवन को पवित्र करके तू प्रभु को प्राप्त कर और ज्ञानवाणियों को ग्रहण करके ‘गोतम’ बन। इस स्थिति में पहुँचने के लिए तू सोम की रक्षा कर। नीरोग व तीव्र बुद्धि बनकर तू देव बन।
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