Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    सु॒गा वो॑ देवाः॒ सद॑नाऽअकर्म॒ यऽआ॑ज॒ग्मेदꣳ सव॑नं जुषा॒णाः। भ॑रमाणा॒ वह॑माना ह॒वीष्य॒स्मे ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि॒ स्वाहा॑॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒गेति॑ सु॒ऽगा। वः॒। दे॒वाः॒। सद॑ना। अ॒क॒र्म॒। ये। आ॒ज॒ग्मेत्या॑ऽज॒ग्म। इ॒दम्। सव॑नम्। जु॒षा॒णाः। भर॑माणाः। वह॑मानाः। ह॒वीꣳषि॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। ध॒त्त॒। व॒स॒वः॒। वसू॑नि। स्वाहा॑ ॥१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुगा वो देवाः सदना अकर्म य आजग्मेदँ सवनञ्जुषाणाः । भरमाणा वहमाना हवीँष्यस्मे धत्त वसवो वसूनि स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुगेति सुऽगा। वः। देवाः। सदना। अकर्म। ये। आजग्मेत्याऽजग्म। इदम्। सवनम्। जुषाणाः। भरमाणाः। वहमानाः। हवीꣳषि। अस्मेऽइत्यस्मे। धत्त। वसवः। वसूनि। स्वाहा॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    १. हे ( देवाः ) = उत्तम व्यवहारवालो तथा काम-क्रोध-लोभ को जीतने की कामनावाले गृहस्थो! ( ये ) = जो तुम ( इदं सवनम् ) = इस सन्तान-निर्माण के साधनभूत गृहस्थ-यज्ञ को ( जुषाणाः ) =  प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए ( आजग्म ) = आये हो, ( उन वः ) = तुम्हारे ( सदना ) = [ सदनानि ] घरों को ( सुगाः ) = सुन्दर गतिवाला, उत्तम क्रियाओंवाला ( अकर्म ) = करते हैं, अर्थात् जब गृहस्थ लोग सन्तान-निर्माणरूप यज्ञ को ही गृहस्थ में प्रवेश का उद्देश्य समझते हैं, तब घरों में उत्तम कार्य ही चलते हैं। 

    २. ऐसे गृहस्थों से प्रभु कहते हैं कि [ क ] ( भरमाणाः ) = घर के सब सदस्यों का भरण करते हुए, उनके पालन-पोषण में कमी न आने देते हुए [ ख ] ( हवींषि वहमाना ) = हवियों का वहन करते हुए, अर्थात् घरों में यज्ञों को विलुप्त न होने देते हुए [ ग ] ( अस्मे ) = हमारी प्राप्ति के लिए ( वसवः ) = हे उत्तम निवासवाले गृहस्थो! आप ( वसूनि ) =  उत्तमोत्तम बातों को, उत्तम गुणों व धनों को ( धत्त ) = धारण करो। ( स्वाहा ) = इस सबके लिए तुम स्वार्थत्याग करनेवाले बनो।

    मन्त्रार्थ से स्पष्ट है कि १. गृहस्थ को गृहस्थाश्राम का उद्देश्य सन्तान-निर्माण ही समझना चाहिए। इस सद्गृहस्थ को चाहिए कि २. गृहस्थ का पालन-पोषण ठीक प्रकार से कर सके [ भरमाणाः ]। ३. यज्ञ की वृत्तिवाला हो [ वहमाना हवींषि ]। ४. तथा प्रभु-प्राप्ति के उद्देश्य से उत्तम गुणों को धारण करनेवाला बने।

    भावार्थ -

    भावार्थ — १. हम गृहस्थ को यज्ञ समझें। २. इसमें गृहजनों के पालन-पोषण तथा यज्ञों के लिए धन कमानेवाले बनें और ३. उत्तम रत्नों को, रमणीय गुणों को धारण करें जिससे प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top