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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 100
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
अ꣢ग्ने꣣ य꣡जि꣢ष्ठो अध्व꣣रे꣢ दे꣣वा꣡न् दे꣢वय꣣ते꣡ य꣢ज । हो꣡ता꣢ म꣣न्द्रो꣡ वि रा꣢꣯ज꣣स्य꣢ति꣣ स्रि꣡धः꣢ ॥१००॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । य꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣ध्वरे꣢ । दे꣣वा꣢न् । दे꣣वयते꣢ । य꣣ज । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्रः꣢ । वि । रा꣣जसि । अ꣡ति꣢꣯ । स्रि꣡धः꣢꣯ ॥१००॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यजिष्ठो अध्वरे देवान् देवयते यज । होता मन्द्रो वि राजस्यति स्रिधः ॥१००॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । यजिष्ठः । अध्वरे । देवान् । देवयते । यज । होता । मन्द्रः । वि । राजसि । अति । स्रिधः ॥१००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 100
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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विषय - दैवी - सम्पत्-त्रयी
पदार्थ -
(अग्ने)=आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! (अध्वरे) = हिंसारहित यज्ञरूप उत्तम कर्मों में (यजिष्ठ)= सर्वोत्तम सङ्गत करनेवाले तो आप ही हो, परन्तु प्रभु भी उसी को उत्तम मार्ग पर ले-चलते हैं जो स्वयं दिव्य गुणों की प्राप्ति की कामनावाला हो । प्रभु का द्वार तो खुलेगा, पर जीव को थपथपाना तो होगा। प्रभु की कृपारूपी वायु हमारे मनरूप नाव को चलाएगी तो सही पर हमें नाव के बादवानों को खोलना होगा । इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (देवयते) = दिव्य गुणों को अपनाने की कामनावाले मेरे लिए आप (देवान्) = दिव्य गुणों को (यज)=सङ्गत कराइए।
जीव की प्रार्थना को सुनकर प्रभु जीव से कहते हैं कि (होता) = तू दानपूर्वक अदन [भक्षण] करनेवाला बन । तू सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाला हो । यही तेरे लिए 'अमृत' है। इस अमृत के सेवन से तेरी सब अशुभ वृत्तियाँ मृत हो जाएँगी।
(मन्द्रः)=तेरी मनोवृत्ति सदा प्रसन्नतावाली हो। मनःप्रसाद ही सर्वोत्तम तप है। होता बनने से तू मन्द्र भी बन पाएगा | तेरे चेहरे पर कभी क्रोध न हो, तुझसे प्रसाद का प्रवाह चारों ओर प्रवाहित हो।
(स्त्रिधः)=हानि पहुँचाने की भावनाओं से [स्त्रिध् to injure] तेरा जीवन अति = परे हो । इन भावनाओं को तू लाँघ चुका हो। कोई तेरा अपमान करे, तुझे हानि पहुँचाए, उसके लिए भी तेरी मङ्गलकामना हो । तू सभी को अपने परमपिता प्रभु का पुत्र समझता हुआ द्वेष से शून्य हो ।
संक्षेप में तू सभी के साथ स्नेह करनेवाला इस मन्त्र का ऋषि ‘विश्वामित्र' बन। तभी यह दानशीलता, सदा प्रसन्नता तथा अहिंसारूप सम्पत्-त्रयी तुझे प्राप्त होगी। और विराजसि-तू इस संसार में विशेष शोभावाला होगा, तेरा जीवन चमक उठेगा।
भावार्थ -
हम होता बनें, सदा प्रसन्न रहें और अपकारी को हानि पहुँचाने की भावना को भी अपने से दूर रक्खें ।
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