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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1012
ऋषिः - कृतयशा आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
आ꣡ व꣢च्यस्व सुदक्ष च꣣꣬म्वोः꣢꣯ सु꣣तो꣢ वि꣣शां꣢꣫ वह्नि꣣र्न꣢ वि꣣श्प꣡तिः꣢ । वृ꣣ष्टिं꣢ दि꣣वः꣡ प꣢वस्व री꣣ति꣢म꣣पो꣢꣫ जिन्व꣣न्ग꣡वि꣢ष्टये꣣ धि꣡यः꣢ ॥१०१२॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । व꣣च्यस्व । सुदक्ष । सु । दक्ष । चम्वोः । सु꣣तः꣢ । वि꣣शा꣢म् । व꣡ह्निः꣢꣯ । न । वि꣣श्प꣡तिः꣢ । वृ꣣ष्टि꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣣वस्व । रीति꣢म् । अ꣣पः꣢ । जि꣡न्व꣢꣯न् । ग꣡वि꣢꣯ष्टये । गो । इ꣣ष्टये । धि꣡यः꣢꣯ ॥१०१२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः । वृष्टिं दिवः पवस्व रीतिमपो जिन्वन्गविष्टये धियः ॥१०१२॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । वच्यस्व । सुदक्ष । सु । दक्ष । चम्वोः । सुतः । विशाम् । वह्निः । न । विश्पतिः । वृष्टिम् । दिवः । पवस्व । रीतिम् । अपः । जिन्वन् । गविष्टये । गो । इष्टये । धियः ॥१०१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1012
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - वैज्ञानिक अन्वेषण व ब्रह्मदर्शन
पदार्थ -
१. हे (सुदक्ष) = उत्तम दक्षता पैदा करनेवाले सोम! तू २. (चम्वोः)-[द्यावापृथिव्योः] मस्तिष्क व शरीर के लिए (सुतः) = उत्पादित हुआ-हुआ (आवच्यस्व) = शरीर में सर्वत्र गतिवाला हो । सोम की रक्षा से मनुष्य कार्यकुशल बनता है और जहाँ अपने मस्तिष्क को उज्वल बनाता है, वहाँ अपने शरीर को सुदृढ़ बनाता है । ३. यह सोम तो (विशाम्) = प्रजाओं की (वह्निः न) = एक सवारी [Vehicle] के समान है जो उन्हें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाने में सहायक होती है । इस सोम की रक्षा से ही उस सोम [प्रभु] तक पहुँचा जाएगा । ४. (विश्पतिः) = यह सोम प्रजाओं का रक्षक है- उन्हें रोगों से बचाकर मृत्यु से बचानेवाला है । ५. हे सोम ! तू (दिवः) = द्युलोक से (वृष्टिम्) = वृष्टि को (पवस्व) = क्षरित कर । सोम की रक्षा से एक योगी जब धर्ममेघ समाधि में पहुँचता है, तब मस्तिष्करूप द्युलोक में स्थित सहस्रधारचक्र से आनन्द के कणों की वर्षा होती है । ६. हे सोम! तू (अपः रीतिम्) = कर्मों के प्रवाह को (पवस्व) = प्राप्त करा । सोमरक्षा से मनुष्य इस मानव जीवन में अन्त तक सतत कर्म करनेवाला बना रहता है। ७. हे सोम! तू (गविष्टये) = उस प्रभु की खोज के लिए अथवा वैज्ञानिक तत्त्वों के अन्वेषण के लिए (धियः) = हमारे प्रज्ञानों व कर्मों को (जिन्वन्) = प्रीणित करनेवाला हो । हमारी बुद्धि इतनी तीव्र हो और क्रियाशक्ति इतनी प्रबल हो कि हम वैज्ञानिक तत्त्वों का अन्वेषण करते हुए अन्त में ब्रह्म की महिमा का दर्शन करें और प्रभु का साक्षात्कार करनेवाले हों ।
सोम की रक्षा से अपने जीवन को मन्त्रवर्णित दिशा में ले चलनेवाला व्यक्ति ‘कृतयशाः आङ्गिरस'=यशस्वी व शक्तिशाली होता है ।
भावार्थ -
हम सोम का पान करें और जीवन को सुन्दर बनाते हुए तथा वैज्ञानिक तत्त्वों की खोज करते हुए प्रभु-दर्शन करनेवाले बनें ।
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