Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1031
ऋषिः - त्रय ऋषयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
3
ज्यो꣡ति꣢र्य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ पवते꣣ म꣡धु꣢ प्रि꣣यं꣢ पि꣣ता꣢ दे꣣वा꣡नां꣢ जनि꣣ता꣢ वि꣣भू꣡व꣢सुः । द꣡धा꣢ति꣣ र꣡त्न꣢ꣳ स्व꣣ध꣡यो꣢रपी꣣꣬च्यं꣢꣯ म꣣दि꣡न्त꣢मो मत्स꣣र꣡ इ꣢न्द्रि꣣यो꣡ रसः꣢꣯ ॥१०३१॥
स्वर सहित पद पाठज्यो꣡तिः꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । प꣣वते । म꣡धु꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । पि꣡ता꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । ज꣣निता꣢ । वि꣣भू꣡व꣢सुः । वि꣣भु꣢ । व꣣सुः । द꣡धा꣢꣯ति । र꣡त्न꣢꣯म् । स्व꣡ध꣢꣯योः । स्व꣣ । ध꣡योः꣢꣯ । अ꣣पीच्य꣢म् । म꣣दि꣡न्त꣢मः । म꣣त्सरः꣢ । इ꣣न्द्रियः꣢ । र꣡सः꣢꣯ ॥१०३१॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्योतिर्यज्ञस्य पवते मधु प्रियं पिता देवानां जनिता विभूवसुः । दधाति रत्नꣳ स्वधयोरपीच्यं मदिन्तमो मत्सर इन्द्रियो रसः ॥१०३१॥
स्वर रहित पद पाठ
ज्योतिः । यज्ञस्य । पवते । मधु । प्रियम् । पिता । देवानाम् । जनिता । विभूवसुः । विभु । वसुः । दधाति । रत्नम् । स्वधयोः । स्व । धयोः । अपीच्यम् । मदिन्तमः । मत्सरः । इन्द्रियः । रसः ॥१०३१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1031
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - रसो वै सः-वह रसमय प्रभु
पदार्थ -
वे प्रभु कैसे हैं—१. (यज्ञस्य ज्योतिः) = यज्ञों के प्रकाशक हैं । ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में 'यज्ञस्य देवम्' शब्द से यही भावना व्यक्त हुई है। वेद में प्रभु ने सब यज्ञों— श्रेष्ठतम कर्मों का प्रतिपादन किया है। २. वे प्रभु जिसे भी प्राप्त होते हैं उसे (मधु प्रियम्) = माधुर्य व स्नेह (पवते) = प्राप्त कराते हैं। 'कोई व्यक्ति प्रभु को प्राप्त कर चुका है या नहीं?' इसकी पहचान यही है कि यदि वह प्रभु को प्राप्त कर चुका है तो उसका जीवन माधुर्य व प्रेम से पूर्ण होगा । ३. (पिता) = वे प्रभु सभी का पालन व रक्षण करनेवाले हैं, ४. (देवानां जनिता) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले हैं, ५. (विभूवसुः) = व्यापक धनवाले हैं। प्रभु का ऐश्वर्य व शक्ति अनन्त हैं, ६. वे प्रभु (स्वधयोः) = द्यावापृथिवी में—– शरीर व मस्तिष्क में (अपीच्यम्) = अन्तर्हित-छिपे रूप से विद्यमान (रत्नम्) = रमणीय वस्तु को (दधाति) = धारण करते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में प्रभु को 'रत्नधातमम्' कहा गया है, ७. (मदिन्तमः) = वे प्रभु अत्यन्त आनन्दमय हैं, ८. (मत्सरः) = अपने भक्तों में आनन्द का प्रसार करनेवाले हैं, ९. (इन्द्रियः) = इन्द्रजीवात्मा के उपासनीय हैं और १०. (रसः) = आनन्दमय हैं – रसरूप हैं – रस ही हैं ।
इस प्रकार प्रभु का ध्यान करनेवाला व्यक्ति 'अकृष्टा माषा:' होता है । यह माष की फलियों की [beens] छीना-झपटी में ही [कृष्ट] नहीं रहता, अर्थात् संसार की वस्तुओं के जुटाने में ही उलझा नहीं रहता। इन वस्तुओं में रस अनुभव न करने से वह इनके लिए ‘सिकता’ ऊसर-भूमि के समान रहता है, इनके लिए उसमें कोई कामना नहीं रहती। वह वासनाओं को दूर करनेवाला निवावरी होता है। इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि' अकृष्टामाषा-सिकता-निवावरी' इस त्रिगुणित [triplicate] नामवाला होता है ।
भावार्थ -
हम प्रभु का ध्यान करें और सांसारिक वस्तुओं की छीना-झपटी से ऊपर उठें ।
इस भाष्य को एडिट करें