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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1041
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
4

स꣣मुद्रो꣢ अ꣣प्सु꣡ मा꣢मृजे विष्ट꣣म्भो꣢ ध꣣रु꣡णो꣢ दि꣣वः꣢ । सो꣡मः꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ अस्म꣣युः꣢ ॥१०४१॥

स्वर सहित पद पाठ

स꣣मुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । अ꣣प्सु꣢ । मा꣣मृजे । विष्टम्भः꣢ । वि꣣ । स्तम्भः꣢ । ध꣣रु꣡णः꣢ । दि꣣वः꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣣स्मयुः꣢ ॥१०४१॥


स्वर रहित मन्त्र

समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः । सोमः पवित्रे अस्मयुः ॥१०४१॥


स्वर रहित पद पाठ

समुद्रः । सम् । उद्रः । अप्सु । मामृजे । विष्टम्भः । वि । स्तम्भः । धरुणः । दिवः । सोमः । पवित्रे । अस्मयुः ॥१०४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1041
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
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पदार्थ -

वस्तुत: [सम्+उत्+र] अपने शरीर में सोम की सम्यक्तया ऊर्ध्वगति [रीङ् गतौ] करनेवाला व्यक्ति ‘समुद्र' कहलाता है । यह इस सुरक्षित सोम के कारण ही स्वस्थ शरीरवाला सदा [ स + मुद् ] प्रसन्नता से युक्त होता है। सोम से शक्तिसम्पन्न होकर विविध कर्मों में द्रवण-गतिवाला होने से भी यह 'समुद्र' [समुद् द्रवति] कहलाता है । यह १. (समुद्रः) = वीर्य की ऊर्ध्वगति करनेवाला, सदा प्रसन्न, क्रियाशील व्यक्ति (अप्सुः) = कर्मों में (मामृजे) = अपने को निरन्तर शुद्ध करता है । कर्मों में लगे रहने के कारण इसपर वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और यह शुद्ध हृदय बना रहता है । २. (विष्टम्भः) = यह विशेषरूप से औरों का धारण करनेवाला होता है [वि + स्तम्भ ], ३. (दिवः धरुणः) = प्रकाश का यह कोश बनता है । ४. ज्ञान का भण्डार बनने से ही यह (सोमः) - विनीत पुरुष (पवित्रे) = अपने पवित्र हृदय में (अस्मयुः) = हमारी प्राप्ति की कामनावाला होता है।

भावार्थ -

अपने को पवित्र करने का उपाय 'कर्मों में लगे रहना' ही है, पवित्र हृदय में ही प्रभु की कामना की जा सकती है ।
 

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