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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1056
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

र꣣यिं꣡ न꣢श्चि꣣त्र꣢म꣣श्वि꣢न꣣मि꣡न्दो꣢ वि꣣श्वा꣢यु꣣मा꣡ भ꣢र । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५६॥

स्वर सहित पद पाठ

र꣣यि꣢म् । नः꣣ । चित्र꣢म् । अ꣣श्वि꣡न꣢म् । इ꣡न्दो꣢꣯ । वि꣣श्वा꣡यु꣢म् । वि꣣श्व꣢ । आ꣣युम् । आ꣢ । भ꣣र । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५६॥


स्वर रहित मन्त्र

रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५६॥


स्वर रहित पद पाठ

रयिम् । नः । चित्रम् । अश्विनम् । इन्दो । विश्वायुम् । विश्व । आयुम् । आ । भर । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥१०५६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1056
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
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पदार्थ -

हे (इन्दो) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप (नः) = हममें (रयिं आभर) = धन का पोषण कीजिए। कौनसे धन का ? १. (चित्रम्) [चत्+र]=जो धन हममें ज्ञान का पोषण करनेवाला है। सामान्यत: धन को ज्ञान का विरोधी समझा जाता है। हमारा धन ज्ञान के अनुकूल हो, ज्ञान का वर्धन करनेवाला हो । हम धन को ज्ञान के साधन जुटाने में व्यय करनेवाले बनें । २. (अश्विनम्) = ['इन्द्रियाणि हयानाः इस वाक्य के अनुसार अश्व का अर्थ इन्द्रियाँ हैं तथा ‘इन् प्रत्यय' प्रशस्त अर्थ में आया है] जो धन प्रशस्त इन्द्रियोंवाला है, अर्थात् जिस धन को प्राप्त करके हम सात्त्विक भोजनादि साधनों को जुटाकर प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनते हैं। भोगासक्त होकर हम इन्द्रियशक्तियों को जीर्ण नहीं कर लेते । एवं, धन वही ठीक है जोकि हमें भोगासक्त नहीं करता और इस प्रकार अ=परमात्मा की ओर श्वि= गतिवाला करता है और (विश्वायुम्) = अन्त में धन वह चाहिए जो हमें पूर्ण आयु को प्राप्त करानेवाला हो अथवा ‘विश्वम् एति' उस सर्वव्यापक प्रभु को प्राप्त कराए ।

इस प्रकार ज्ञान को बढ़ानेवाले [विश्वम्], इन्द्रियों को प्रशस्त करनेवाले [अश्विनम्] तथा पूर्ण आयु को प्राप्त करानेवाले अथवा सर्वव्यापक प्रभु तक पहुँचानेवाले [विश्वायुम्] धन को प्राप्त कराकर हे प्रभो ! आप (अथ नः वस्यसः कृधि) -हमारे जीवनों का उत्कृष्ट बना दीजिए ।

भावार्थ -

हम ऐसा धन प्राप्त करें जो हमें भोगासक्त न करके प्रभु को प्राप्त करानेवाला हो ।

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