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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1062
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
अ꣣भि꣡ गव्या꣢꣯नि वी꣣त꣡ये꣢ नृ꣣म्णा꣡ पु꣢ना꣣नो꣡ अ꣢र्षसि । स꣣न꣡द्वा꣢जः꣣ प꣡रि꣢ स्रव ॥१०६२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । ग꣡व्या꣢꣯नि । वी꣣त꣡ये꣢ । नृ꣣म्णा꣢ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣र्षसि । सन꣡द्वा꣢जः । स꣣न꣢त् । वा꣣जः । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व ॥१०६२॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि गव्यानि वीतये नृम्णा पुनानो अर्षसि । सनद्वाजः परि स्रव ॥१०६२॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । गव्यानि । वीतये । नृम्णा । पुनानः । अर्षसि । सनद्वाजः । सनत् । वाजः । परि । स्रव ॥१०६२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1062
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - परिव्राजक
पदार्थ -
प्रभु मन्त्र के ऋषि ‘जमदग्नि भार्गव' से कहते हैं कि तू (गव्यानि) = [गोर्वाक् तद्विकारभूतानि शास्त्रवचनानि] वेदवचनों की (अभि अर्षसि) = ओर जाता है, अर्थात् तू निरन्तर वेदवाणियों को अपनाता है । १. (वीतये) = सब प्रकार के दुरितों के निरसन के लिए [वी असन] । वेदवाणियों के श्रवण व मनन से तू अपने दुरितों व मलों को दूर करता है और २. (नृम्णा पुनान:) = अपने बलों को पवित्र करता है। पवित्र बल में हिंसा की भावना नहीं होती – यह बल 'शान्त' होता है । (सनत् वाज:) = बलों का सेवन करनेवाला तू (परिस्रव) = [स्रु गतौ] चारों ओर इस वेदवाणी के प्रचार के लिए गतिवाला हो- परिव्राजक बन।
भावार्थ -
१. ब्रह्मचर्याश्रम में वेदवाणी को अपनाएँ, २. गृहस्थ में दुरितों को दूर करें, ३. वनस्थ होकर अपने बलों को पवित्र करें और ४. संन्यास में शक्तिशाली बनकर वेदवाणी के प्रचारार्थ परिव्राजक बनें ।
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