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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1073
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
य꣣ज्ञ꣢स्य꣣ हि꣢꣫ स्थ ऋ꣣त्वि꣢जा꣣ स꣢स्नी꣣ वा꣡जे꣢षु꣣ क꣡र्म꣢सु । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ त꣡स्य꣢ बोधतम् ॥१०७३॥
स्वर सहित पद पाठय꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । हि । स्थः । ऋ꣣त्वि꣡जा꣢ । सस्नी꣢꣯इ꣡ति꣢ । वा꣡जे꣢꣯षु । क꣡र्म꣢꣯सु । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । बो꣣धतम् ॥१०७३॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञस्य हि स्थ ऋत्विजा सस्नी वाजेषु कर्मसु । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥१०७३॥
स्वर रहित पद पाठ
यज्ञस्य । हि । स्थः । ऋत्विजा । सस्नीइति । वाजेषु । कर्मसु । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । तस्य । बोधतम् ॥१०७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1073
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - इन्द्र + अग्नि
पदार्थ -
("प्राणापानौ वा इन्द्राग्नी") – गो० २.१ से स्पष्ट है कि इन्द्राग्नी का अभिप्राय प्राणापान से है । तै० १.६.४.३ में (“प्राणापानौ वा एतौ देवानां यदिन्द्राग्नी") इन शब्दों में देवों के प्राणापान को इन्द्राग्नी नाम दिया है। जब मनुष्य प्राणापान का प्रयोग सामान्य क्षुधा - तृषा इत्यादि के मिटाने में ही न कर, खान-पान की दुनिया से ऊपर उठकर, आध्यात्मक्षेत्र में विचरता है और देवमार्ग पर चलता है तब प्राणापान ‘इन्द्राग्नी' नामवाले हो जाते हैं। ('ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी') कौ० १२.८ के शब्दों में ये ज्ञान और बल के संस्थापक हैं । ऐ० २.३६ में इन्हें (“इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ बलिष्ठौ सहिष्ठौ सप्तमौ पारयिष्णुतमौ") कहा गया है। ये ओज, बल व साहस को देनेवाले हैं, श्रेष्ठतम हैं और सब कार्यों में सफल बनानेवाले हैं। ('इन्द्राग्नी वै विश्वेदेवाः') – शत० २.४.४.१३ के अनुसार इन्द्राग्नी ही सब दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले हैं। प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि इन प्राणापान के द्वारा ही गतिशील बनकर ‘श्यावाश्व’ [गतिशील इन्द्रियोंवाला] कहलाया है, त्रिविध दुःखों व शोकों से ऊपर उठकर आत्रेय' हुआ है। यह प्राणापान को ही सम्बोधित करके कहता है कि – १. हे (इन्द्राग्नी) =प्राणापानो! (हि) = निश्चय से आप दोनों (यज्ञस्य) = मेरे जीवन-यज्ञ के (ऋत्विजा स्थ) = ऋत्विज हो । आपकी कृपा से ही मेरा यह जीवन-यज्ञ चल रहा है । २. आप ही (वाजेषु) = सब बलों में तथा (कर्मसु) = कर्मों में (सस्त्री) = मुझे खूब शुद्ध करनेवाले हो । शक्ति तथा कर्मों के द्वारा सब मलों को दूर करनेवाले हो । ३. इस प्रकार शुद्ध बनाकर हे प्राणापानो ! (तस्य) = उस प्रभु का (बोधतम्) = ज्ञान दो। प्राणापान की साधना से ही हमारे ब्रह्म व क्षत्र [ज्ञान+बल] विकसित होते हैं और हम ब्रह्म के समीप पहुँच जाते हैं।
भावार्थ -
प्राणापान ही जीवन-यज्ञ को ठीक से चलाते हैं, हमारी शक्तियों व कर्मों को पवित्र करते हैं और अन्त में हमें प्रभु को प्राप्त कराते हैं ।