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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 111
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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भ꣣द्रो꣡ नो꣢ अ꣣ग्नि꣡राहु꣢꣯तो भ꣣द्रा꣢ रा꣣तिः꣡ सु꣢भग भ꣣द्रो꣡ अ꣢ध्व꣣रः꣢ । भ꣣द्रा꣢ उ꣣त꣡ प्रश꣢꣯स्तयः ॥१११॥

स्वर सहित पद पाठ

भ꣣द्रः꣢ । नः꣣ । अग्निः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तः । आ । हु꣣तः । भद्रा꣢ । रा꣣तिः꣢ । सु꣢भग । सु । भग । भद्रः꣢ । अ꣣ध्वरः꣢ । भ꣣द्राः꣢ । उ꣣त꣢ । प्र꣡श꣢꣯स्तयः । प्र । श꣣स्तयः ॥१११॥


स्वर रहित मन्त्र

भद्रो नो अग्निराहुतो भद्रा रातिः सुभग भद्रो अध्वरः । भद्रा उत प्रशस्तयः ॥१११॥


स्वर रहित पद पाठ

भद्रः । नः । अग्निः । आहुतः । आ । हुतः । भद्रा । रातिः । सुभग । सु । भग । भद्रः । अध्वरः । भद्राः । उत । प्रशस्तयः । प्र । शस्तयः ॥१११॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 111
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि 'सोभरि काण्व' हैं। यह उत्तम प्रकार से अपना भरण करता है, अतएव सचमुच मेधावी है। जीवन-यात्रा के चार प्रयाण हैं। एक - एक प्रयाण पड़ाव के लिए यह अपना एक-एक आदर्शवाक्य [motto] बना लेता है। ब्रह्मचर्यरूप प्रथम पड़ाव में यह कहता है कि (आहुत:) = जिसके प्रति हमने पूर्णतया अपना समर्पण कर दिया है, वह ('अग्नि')=पिता, माता और आचार्य हमारे लिए कल्याणकर हों। इस आश्रम में बालक को पाँच वर्ष तक माता के प्रति, आठ वर्ष तक पिता के प्रति और फिर पच्चीस वर्ष की आयु तक आचार्य के प्रति अपने को सौंप देना चाहिए। वे जो कुछ खिलाएँ, पिलाएँ, पढ़ाएँ वही ठीक है, ऐसी इसकी भावना होनी चाहिए। जो ब्रह्मचारी इस प्रकार आचार्य के प्रति अपना समर्पण करेगा वह स्वभावत: आचार्य का अत्यन्त प्रिय होगा और आचार्य उसे पुत्र से भी अधिक समझते हुए अधिक-से-अधिक ज्ञानी बनाने का प्रयत्न करेंगे।

इसके बाद द्वितीय आश्रम गृहस्थ है। इसमें मूल कर्त्तव्य है कि 'हम दें'। (सुभग:) = घर को सौभाग्यशाली बनानेवाली (राति:)=दान-वृत्ति (भद्रा:) = हमारा कल्याण करनेवाली हो ।( “जुहोत प्र च तिष्ठत”)=दान दो और प्रतिष्ठा पाओ। यह बात सबके अनुभव की है कि दान देनेवाले की लोक में प्रतिष्ठा होती है। (“श्रदस्मै वचसे नरो दधातन यदाशीर्दा दम्पती वाममश्नुत: ")= प्रभु कहते हैं कि हे मनुष्यो! इस वचन में श्रद्धा करो कि दिल खोलकर दान करनेवाले पति-पत्नी सुन्दर सन्तान प्राप्त करते हैं। और (“दक्षिणां दुहते सप्त मातरम् ”) = दान दिये हुए धन को सप्त गुणित करके हम फिर प्राप्त करते हैं। इस प्रकार दान एक गृहस्थ को प्रतिष्ठित, उत्तम सन्तान से युक्त व धनधान्य- सम्पन्न बनाता है।

अब वानप्रस्थाश्रम अथवा यात्रा के तीसरे पड़ाव में यह सोभरि कहता है कि अध्वरः-अहिंसात्मक यज्ञ (भद्रः) = कल्याणकर हों । वानप्रस्थ को गृहस्थाश्रम छोड़ते हुए घर की सारी सामग्री को ही छोड़ जाना होता है। केवल अग्निकुण्ड व हवन के हेतु चम्मच आदि लेकर ही वह वनस्थ हो जाता है। यह अग्निहोत्र उसके यज्ञिय जीवन का प्रतीक है, अब उसे सारा जीवन यज्ञमय बनाना है। गृहस्थ में वह थोड़ी-बहुत हिंसा कर बैठता था, परन्तु अब तो गृहस्थ- भार से मुक्त हो जाने पर उसे उतनी हिंसा से भी ऊपर उठना है।

(उत) = और अब इस अहिंसा की साधना के बाद चौथे पड़ाव में (प्रशस्तयः) = प्रभु की स्तुतियाँ, सदा प्रभु का स्मरण (भद्रा:) = कल्याणकर हों । संन्यासी यदि प्रभु का स्मरण न करे तो किसी भी समय स्खलित हो सकता है, अतः उसे सदा प्रभु-स्मरण में लगे रहना है। ऐसा करने पर यह यात्रा निर्विघ्न पूरी हो जाएगी।

भावार्थ -

हम समर्पण, दान, यज्ञ व प्रभु-स्मरणरूप चार केन्द्रीभूत कर्त्तव्यों का पालन करते हुए जीवन-यात्रा को निर्विघ्न पूर्ण करें।

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