Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1147
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
3

इ꣡न्द्रा या꣢꣯हि धि꣣ये꣢षि꣣तो꣡ विप्र꣢꣯जूतः सु꣣ता꣡व꣢तः । उ꣢प꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि वा꣣घ꣡तः꣢ ॥११४७॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯ । आ । या꣣हि । धिया꣢ । इ꣣षितः꣢ । वि꣡प्र꣢꣯जूतः । वि꣡प्र꣢꣯ । जू꣣तः । सु꣡ता꣢वतः । उ꣡प꣢꣯ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । वा꣣घ꣡तः꣢ ॥११४७॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः । उप ब्रह्माणि वाघतः ॥११४७॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्र । आ । याहि । धिया । इषितः । विप्रजूतः । विप्र । जूतः । सुतावतः । उप । ब्रह्माणि । वाघतः ॥११४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1147
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -

प्रभु मधुच्छन्दा से कहते हैं – हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (धिया इषितः) = बुद्धि से प्रेरित हुआ-हुआ, (विप्रजूत:) = विशेषरूप से अपना पूरण करने के लिए गतिवाला तू (सुतावत:) = यज्ञशील तथा (वाघतः) = स्तोता पुरुष के (ब्रह्माणि) = स्तोत्रों को (उप आयाहि) = प्राप्त हो ।

प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम १. बुद्धि से प्रेरित हों। सब कार्यों को बुद्धिपूर्वक करें । २. हमारा प्रत्येक कार्य अपना विशेषत: पूरण करने के उद्देश्य से हो [वि+प्र]। अपनी न्यूनताओं को दूर करते हुए हम आगे और आगे बढ़ते चलें । ३. हम यज्ञशील स्तोताओं के स्तोत्रों को करनेवाले हों । हमारे स्तोत्र केवल शाब्दिक न हों- हम उनके अनुसार अपने जीवनों को बनाने के लिए भी यत्नशील हों ।

भावार्थ -

हमारा प्रत्येक कार्य बुद्धिपूर्वक हो-हम अपना पूरण करें – हमारी स्तुति हमें यज्ञशील बनाए।

इस भाष्य को एडिट करें
Top