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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1158
ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ शिखण्डिन्यावप्सरसौ काश्यपौ वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
स꣡मी꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न मा꣣तृ꣡भिः꣢ सृ꣢ज꣡ता꣢ गय꣣सा꣡ध꣢नम् । दे꣣वाव्यां꣣꣬३꣱म꣡द꣢म꣣भि꣡ द्विश꣢꣯वसम् ॥११५८॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ई꣣ । वत्स꣢म् । न । मा꣣तृ꣡भिः꣢ । सृ꣣ज꣢त꣢ । ग꣣यसा꣡ध꣢नम् । ग꣣य । सा꣡ध꣢꣯नम् । देवाव्य꣣꣬म् । दे꣣व । अव्य꣣꣬म् । म꣡द꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । द्वि꣡श꣢꣯वसम् ॥११५८॥
स्वर रहित मन्त्र
समी वत्सं न मातृभिः सृजता गयसाधनम् । देवाव्यां३मदमभि द्विशवसम् ॥११५८॥
स्वर रहित पद पाठ
सम् । ई । वत्सम् । न । मातृभिः । सृजत । गयसाधनम् । गय । साधनम् । देवाव्यम् । देव । अव्यम् । मदम् । अभि । द्विशवसम् ॥११५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1158
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - प्रभु के प्रिय पुत्र
पदार्थ -
गत मन्त्र में प्रभु-गायन के द्वारा अपने जीवनों को ‘शिशुं न'=एक बच्चे की भाँति [childlike] निश्छल व निष्कपट बनाने का संकेत था । इस मन्त्र में 'शिशुं न' के स्थान पर 'वत्सं न' शब्द हैं। एक निष्कपट बालक माता-पिता को बड़ा प्रिय [= वत्सम्] प्रतीत होता है। हम भी अपने जीवनों को पवित्र बनाकर प्रभु का प्रिय बनने का प्रयत्न करें। ऐसा तभी हो सकता है जब हम अपने अन्दर ‘निर्माणात्मक तथा ज्ञानपूर्ण विचारों को उत्पन्न करें'। 'मातृ' शब्द के दोनों ही अर्थ हैं—१. निर्माता - maker, २. ज्ञाता knower । (मातृभि:) = इन निर्माण व ज्ञान के साधक विचारों से हम अपने को (वत्सं न) = प्रभु के प्रिय पुत्र के समान (संसृजत) = बनाएँ | ई-निश्चय से हम अपने को निम्न गुणों से युक्त कर लें – १. (गयसाधनम्) = [गया: प्राणा:] प्राणशक्ति की साधनावाला । हम अपनी नैत्यिक चर्या में प्राणायाम को अवश्य स्थान दें। प्राणसाधना मनोनिरोध का मूल है और इस प्रकार उन्नति की नींव है। २. (देवाव्याम्) = दिव्य गुणों की रक्षा करनेवाला । प्राणसाधना से ही आसुर वृत्तियों का संहार होकर हममें दिव्य गुणों का वर्धन होगा। आसुर वृत्तियों का आक्रमण व्यर्थ हो जाएगा तो जीवन में ३. (मदम्) = उल्लास आएगा ही । ४. (अभिद्विशवसम्) = हम दोनों बलों की ओर चलें । मनुष्य की दो शक्तियाँ ‘ज्ञान और कर्म' हैं । हम अपने जीवन में ज्ञान और कर्म का समन्वय करनेवाले बनें । ज्ञानपूर्वक किये गये कर्म ही पवित्र होते हैं, और कर्मों में लगे रहना ही ज्ञान के आवरण 'काम' को नष्ट करने का मुख्य साधन है।
भावार्थ -
हमारा जीवन प्राणसाधनावाला, दिव्य गुणों का रक्षक, उल्लासमय, ज्ञान व कर्मशक्तिसम्पन्न हो, जिससे हम प्रभु के प्रिय पुत्र बन सकें ।
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