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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 116
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡स्ते꣢ नू꣣न꣡ꣳ श꣢तक्रत꣣वि꣡न्द्र꣢ द्यु꣣म्नि꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ । ते꣡न꣢ नू꣣नं꣡ मदे꣢꣯ मदेः ॥११६॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । ते꣣ । नून꣢म् । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । इ꣡न्द्र꣢꣯ । द्यु꣣म्नि꣡त꣢मः । म꣡दः꣢꣯ । ते꣡न꣢꣯ । नू꣣न꣢म् । म꣡दे꣢꣯ । म꣣देः ॥११६॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते नूनꣳ शतक्रतविन्द्र द्युम्नितमो मदः । तेन नूनं मदे मदेः ॥११६॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । ते । नूनम् । शतक्रतो । शत । क्रतो । इन्द्र । द्युम्नितमः । मदः । तेन । नूनम् । मदे । मदेः ॥११६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 116
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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विषय - अद्भुत मस्ती
पदार्थ -
हे (शतक्रतो) = अनन्त ज्ञान व कर्मवाले (इन्द्र) = सर्वैश्वर्यशालिन् प्रभो! (य:) = जो (ते) = तेरा (द्युम्नितमोः मदः) = अत्यन्त प्रकाशमय मद है (तेन) उससे (ऊनम्) = रहित मुझे (नु) = इस समय (मदे) = मद के निमित्त (मदे:) = मदवाला कर दीजिए।
मद का अर्थ नशा, धुन, मस्ती व खब्त होता है। जब यह नशा शराब आदि के प्रयोग से उत्पन्न किया जाता है तो इसमें अच्छी भावना नहीं होती। अन्नमात्र के खाने से कुछ नशा उत्पन्न होता है। धन का भी नशा है, जो धतूरे के नशे से भी अधिक कहा गया है। किसी भी बाह्य वस्तु का नशा उत्तम नहीं। अन्दर का नशा इनकी तुलना में उत्तम होता है। मनुष्य बल का सम्पादन करे, बल- सम्पादन की उसे धुन हो। यह बल- सम्पादन धन-सम्पादन से अधिक उत्तम है। इससे भी उत्तम प्राणों की साधना है। प्राणों को निर्भीक बनाने की धुन बल-सम्पादन से अच्छी है। इस प्राणमयकोश से भी ऊपर उठकर मनोमयकोश को निर्मल बनाना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। मन से द्वेष को दूर हटाने में जुट जाना अधिक आनन्दप्रद होता है, परन्तु इससे भी उत्कृष्ट आनन्द विज्ञानमयकोश का है। उस आनन्द में डूबे हुए व्यक्ति को अन्य सब आनन्द फीके प्रतीत होते हैं। इस आनन्द से ऊँचा आनन्द तो केवल ब्रह्म-प्राप्ति का आनन्द है, जिसका यह साधन है। विज्ञान प्राप्ति में लगा हुआ मनुष्य अन्य सब सांसारिक व्यसनों से बच जाता है और इस प्रकार यह विद्या का व्यसन मनुष्य को हीन व्यसनों से मुक्त कर ब्रह्म-प्राप्ति के योग्य बनाता है। यह ज्ञान उसका शरण-स्थल बनता है, जहाँ छिपकर वह काम, क्राधादि के आक्रमणों से बच जाता है। एवं, ज्ञान को अपनी शरण [shelter] बनानेवाला यह व्यक्ति 'श्रुतकक्ष' [ज्ञान है शरण जिसका, hiding place] बना है। इससे उत्तम शरण और क्या हो सकती है! अतः यह 'सु-कक्ष' = उत्तम शरणस्थलवाला है। व्यसनों में न फँसने से अपनी शक्ति की रक्षा करनेवाला यह 'आंगिरस'= शक्तिसम्पन्न है।
भावार्थ -
हमें ज्ञान की मस्ती प्राप्त हो । ज्ञान प्राप्ति में हमें आनन्द आने लगे। यह ज्ञान-प्राप्ति का व्यसन हमें अन्य व्यसनों से बचा लेगा। यह ज्ञान हमारा शरण= shelter होगा।