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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1162
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - द्विपदा विराट्
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
प्र꣡ सो꣢म या꣣ही꣡न्द्र꣢स्य कु꣣क्षा꣡ नृभि꣢꣯र्येमा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिः सु꣣तः꣢ ॥११६२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सो꣣म । याहि । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । कु꣣क्षा꣢ । नृ꣡भिः꣢꣯ । ये꣣मानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुतः꣢ ॥११६२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोम याहीन्द्रस्य कुक्षा नृभिर्येमानो अद्रिभिः सुतः ॥११६२॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सोम । याहि । इन्द्रस्य । कुक्षा । नृभिः । येमानः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । सुतः ॥११६२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1162
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - परमात्मा की कुक्षि में, तृतीय धाम में
पदार्थ -
हमारे जीवनों में माता-पिता व परिवार के अन्य बड़े व्यक्ति मुख्यरूप से हमारा नेतृत्व करनेवाले होते हैं। सर्वप्रथम इनके जीवनों का ही हमपर प्रभाव पड़ता है। इन (नृभिः) = नेतृत्व देनेवालों से (येमानः) = संयत जीवनवाले बनाये जाते हुए तथा (अद्रिभिः) = गुरुओं से (सुतः) = जन्म दिया हुआ (सोम) = हे शान्त-स्वभाव आत्मन् ! तू (इन्द्रस्य कुक्षा) = उस प्रभु के कोख में (प्र याहि) = प्रकर्षेण प्राप्त हो । आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन करता हुआ उसे अपने गर्भ में धारण करता है और ज्ञान से परिपक्व करके कालान्तर में उसे द्वितीय जन्म देता है। प्रथम जन्म माता-पिता ने दिया था और माता ने गर्भस्थ बालक को अपने उचित आहार-विहार से शान्त-दान्त बनाने का प्रयत्न किया । अब आचार्य ने उसे ज्ञान से परिपक्व बनाया है। इस प्रकार इन दो जन्मों को प्राप्त करके यह द्विज बना और द्विज बनकर प्रभु की गोद में पहुँचने का अधिकारी हुआ । इसका प्रथम निवास स्थान वा आधार माता-पिता' थे- दूसरे आधार 'आचार्य' थे और अब यह प्रभुरूप तृतीय धाम में विचरनेवाला बना है ।
भावार्थ -
हम प्रथम धाम में संयम और द्वितीय धाम में ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करके तृतीय धाम में आनन्द व शान्ति का लाभ करें ।
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