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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1173
ऋषिः - अत्रिर्भौमः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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य꣡न्मन्य꣢꣯से꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣मि꣡न्द्र꣢ द्यु꣣क्षं꣡ तदा भ꣢꣯र । वि꣣द्या꣢म꣣ त꣡स्य꣢ ते व꣣य꣡मकू꣢꣯पारस्य दा꣣व꣡नः꣢ ॥११७३॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । म꣡न्य꣢꣯से । व꣡रे꣢꣯ण्यम् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣢म् । द्यु꣣ । क्ष꣢म् । तत् । आ । भ꣣र । विद्या꣡म꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । वय꣢म् । अ꣡कू꣢꣯पारस्य । दावनः ॥११७३॥


स्वर रहित मन्त्र

यन्मन्यसे वरेण्यमिन्द्र द्युक्षं तदा भर । विद्याम तस्य ते वयमकूपारस्य दावनः ॥११७३॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । मन्यसे । वरेण्यम् । इन्द्र । द्युक्षम् । द्यु । क्षम् । तत् । आ । भर । विद्याम । तस्य । ते । वयम् । अकूपारस्य । दावनः ॥११७३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1173
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप (यत्) = जो भी (द्युक्षम्) = दिव्य ज्ञान की अविरोधी (वरेण्यम्) = वरणीय—चाहने योग्य वस्तु (मन्यसे) = समझते हैं (तत्) = उस दिव्य वरणीय वस्तु को (आभर) = हमें प्राप्त कराइए । वस्तुतः मनुष्य के लिए यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि उसे किस वस्तु की प्रार्थना करनी चाहिए और किसकी नहीं, अत: प्रार्थना का यही स्वरूप सर्वोत्तम है कि हे प्रभो ! हमें वही दिव्य, वरणीय वस्तु प्राप्त कराइए जो आपकी दृष्टि में हमारे लिए हितकर है ।

(वयम्) = कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले, अर्थात् पुरुषार्थ में तत्पर हम (ते) = आपके (तस्य) = उस (अकूपारस्य) = [अकुत्सित परणस्य] अनिन्दित पालन व पोषण करनेवाले (दावन:) = दान के (विद्याम) = प्राप्त करनेवाले हों [विद् लाभे] । बिना पुरुषार्थ के प्रार्थना (निष्प्रयोजन) = है, अत: हम पुरुषार्थी हों और आपकी कृपा प्राप्त करने के अधिकारी हों। आपके दान अनन्त हैं, आपके दान दिव्य हैं, वस्तुतः वे ही हमारे लिए वरणीय हैं।

भावार्थ -

हे प्रभो! हम आपके दिव्य, वरेण्य दान को प्राप्त करने के पात्र हों।

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